स्वर्ग नर्क (swarg narak in hindi)

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स्वर्ग नर्क (swarg narak in hindi)- Heaven hell:

स्वर्ग और नर्क मनुष्य के जीवन की ऐसी पहेली है जिसे सुलझाना, आसान नहीं| लोगों को लगता है कि, मृत्यु के बाद का जीवन स्वर्ग या नर्क लोक से संबंधित होता है| क्या वास्तव में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो, ऐसा संभव है? नही तो, फिर बड़े बड़े धार्मिक ग्रंथों में भी स्वर्ग और नरक की चर्चा क्यों की गई है? तो आपको बता दें कि, मृत्यु का अर्थ केवल शरीर के चले जाने से नहीं होता| अहंकार के लिए आत्मज्ञान मृत्युतुल्य है अर्थात मनुष्य की पहचान मिटना भी, उसके व्यक्तित्व की मृत्यु ही कहलाती है और उसके पर्यंत प्राप्त होने वाली स्थिति को ही, स्वर्ग नरक कहा जाता है| इसे गहराई से समझने के लिए, हमें कुछ प्रश्नों की ओर चलना होगा|

 

  1. स्वर्ग क्या है?
  2. नरक क्या होता है?
  3. नरक से बचने के लिए क्या करें?
  4. स्वर्ग के स्वामी कौन है?
  5. स्वर्ग कैसे मिलता है?
स्वर्ग नर्क
Image by Jeroným Pelikovský from Pixabay

आत्मा के लिए स्वर्ग नर्क नहीं होता क्योंकि, आत्मा व्यक्तिगत नहीं होती बल्कि, ये कहें कि, आत्मा अनंत आकाश है जो, नित नए जीवों में प्राण फूंकता है| आपने कुछ लोगों को कहते सुना होगा, स्वर्ग भी यहीं नरक भी यहीं जो, एक अर्थ में तो सत्य है किंतु, मनुष्य जिन भोग विलास को, स्वर्ग से जोड़कर देखता है वस्तुतः वही जीते जी नर्क का द्वार हैं| फिर, वास्तविक स्वर्ग के मार्ग का पता कैसे चलेगा? क्योंकि, मन में स्वर्ग की कल्पना तो, सपनों की भांति स्वर्ण नगरी की ही है जहाँ अप्सराओं का नृत्य और मधुर संगीत वादन हो रहा है साथ ही, उत्तम पकवानों का मंच सजाया गया हो जिसे मानवीय कल्पना ही कहना सही होगा| संसार में चारों ओर अज्ञानता का अंधकार फैला है| मनुष्य धन दौलत से मिलने वाले सुखों के पीछे भाग रहा है और वह स्वर्ग में भी भौतिकता से संबंधित सुख देख रहा है| वह मद में इतना अंधा है कि, उसे प्रतीत ही नहीं हो रहा कि, अब तक उसने जिस भी विषय से, शांति प्राप्त करनी चाही उसे, निराशा हाथ लगी फिर भी, अन्य लोगो की भांति सांसारिक सुख ही, उसके आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं| इनसे दूर जाना भी क्यों है, जब इसके अतिरिक्त आनंद का कोई और विकल्प नहीं है? तो, आपको जानकर आश्चर्य होगा कि, एक ऐसा अद्भुत मार्ग है, जिसका पता चलते ही, सांसारिक सुख मिट्टी के समान प्रतीत होंगे जिन्हें, निम्न बिन्दुओं में स्पष्ट किया गया है|

स्वर्ग क्या है?

स्वर्ग क्या हैः what is heaven?
Image by Friedrich Teichmann from Pixabay

स्वर्ग को देव लोक भी कहा जाता है जहां, देवताओं का वास हो उसे ही, स्वर्ग लोक कहा जाएगा किंतु, मनुष्य वहाँ कैसे पहुँच सकते हैं? तो, आपको बता दें, जो मनुष्य अपने मूल स्वभाव अर्थात शांति को प्राप्त कर लेता है उसे ही, देवता का रूप माना गया है भले ही, वह मनुष्य के रूप में जन्म ले किंतु, सांसारिक विषय वस्तुओं के प्रति, उसमें कोई आकर्षण नहीं होता| वही देव पुरूष है| जैसे, भगवान राम, कृष्ण, बुद्ध, स्वामी विवेकानंद, संत परमहंस, संत कबीर, गुरु नानक देव इत्यादि ऐसे ही पवित्र आत्मा जीते जी स्वर्ग में निवास करते हैं| उनका जीवन आम मनुष्यों को कष्टकारी, संघर्ष की भाँति भले ही प्रतीत हो किंतु, उसे जीने वाले देव पुरुष सदा ही, आनंद का अनुभव करते हैं| आपने कभी सोचा, महापुरुषों ने क्यों, अपने शारीरिक सुखों को महत्व नहीं दिया, क्यों वह सुख सुविधाओं का त्याग कर, संघर्ष के प्रति समर्पित हुए? तो आप जानकार हैरान होंगे कि, यही स्वर्ग का मार्ग था जो, वह अपने कर्मों से, मानव समाज को बताना चाहते थे किंतु, मानव ने उन्हें भगवान बनाकर, स्वयं साधारण इंसान बनने का चोला ओढ़ लिया और पशुओं की भांति शारीरिक तल पर अपना जीवन जीने लगा जिससे, वह अपने स्वर्ग से वंचित रह गया| स्वर्ग केवल एक सार्थक कर्म करने वाले निष्काम कर्मयोगी को ही प्राप्त होता है| हालांकि, परमार्थ में जीवों का संरक्षण करने वाले भी, दिव्य आत्मा हैं जिन्हें, विष्णु की भांति पालनकर्ता माना जायेगा|

नरक क्या होता है?

नरक क्या होता है: What is hell?
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नर्क में राक्षसों का वास होता है यहाँ, राक्षसों से आशय किसी, कुरूप दैत्याकार प्रजाति से नहीं हैं बल्कि, राक्षस उस मनुष्य को कहा गया है जो, केवल अपने स्वार्थ के लिए जीता है जिसमें, भोग की तीव्र वासना है तथा उसमें परमार्थ की उत्पत्ति की आशा मिट गयी हो, उसे ही नर्क का वासी बताया गया है| नरक किसी विशेष स्थान को नहीं कहा जाता बल्कि, मन की उस अवस्था को नर्क की संज्ञा दी गई है जहाँ, मनुष्य अपने चित्त की स्थिरता खो बैठता है और अहंकार में चूर होकर, अपने सर्वनाश को आमंत्रित कर देता है| जिस प्रकार दुर्योधन ने, कृष्ण की बात न मानकर और रावण ने, राम के शांति प्रस्ताव की अवहेलना कर, अपने राक्षसी प्रवृत्ति का परिचय दिया था, उसी प्रकार मनुष्य भी, अपने गुणों से अपना रुप पहचान सकता है| यहाँ कोई बीच की स्थिति नहीं होती या तो आप स्वर्ग में होंगे या नर्क में, केवल उसका अनुभव होना शेष है| एक बच्चे को अपने माता पिता के साथ, स्वर्ग का अनुभव होता होगा लेकिन, जब बच्चे को पढ़ने के लिए, कहा जाए तो कदाचित्, वह पीड़ादायक अनुभव करेगा लेकिन, इसे नर्क नहीं कहा जा सकता| वस्तुतः स्वर्ग का रास्ता, संघर्ष के बाद ही प्राप्त होता है इसलिए, मनुष्य के रूप में जन्म लेने मात्र से, आनंद प्राप्त नहीं होगा| हाँ, क्षणिक सुख मन को भ्रमित अवश्य करेंगे जो, समय आने पर चूर चूर हो जाएगा| अतः अपनी वास्तविक स्थिति को जानकर ही, अपने आगे का रास्ता देखा जा सकेगा|

नरक से बचने के लिए क्या करें?

नरक से बचने के लिए क्या करें: What to do to escape hell?
Image by Mystic Art Design from Pixabay

नरक एक मानसिक अवस्था है जिससे, केवल आत्मज्ञान से ही बाहर आया जा सकता है| आत्मज्ञान वह शिक्षा है जो, अपने वास्तविक रूप को देखने की क्षमता प्रदान करती है जिससे, एक मनुष्य यह समझ पाता है कि, उसके लिए क्या करना उचित है और क्या अनुचित और जब इस ज्ञान के साथ, मनुष्य संसार में किसी भी विषय वस्तु से जुड़ता है तो, उसके दुष्परिणामों का पूर्वाभास उसे, नारकीय स्थिति का बाधक बन जाता है परिणामस्वरूप मन की शांति का ह्रास रुक जाता है| कोई मनुष्य धन की अधिकता होने से, शांति प्राप्त नहीं कर सकता| शांति ही स्वर्ग का प्रतीक है जिसे, स्वतंत्रता भी कहा जा सकता है| जिसकी खोज मनुष्य सांसारिक तत्वों में कर रहा है जो, हास्यास्पद है क्योंकि, संसार में कोई ऐसी विषय वस्तु उपलब्ध नहीं जो, अनंत हो जिसका, बदलाव न हो सके और परिवर्तनीय विषय, असत्य के सूत्रधार कहलाते हैं क्योंकि, सत्य तो अटल, अमिट, अनंत होता है, जिसकी संगत घोर नर्क से, मुक्ति प्रदान करती है|

स्वर्ग के स्वामी कौन है?

स्वर्ग के स्वामी कौन हैः Who is the lord of heaven?
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स्वर्ग का स्वामी देवराज इन्द्र को कहा गया है| इन्द्र ही मनुष्य की इन्द्रियों का परिचायक हैं जिन्हें, वश में करते ही, मनुष्य स्वर्ग तक पहुँच सकता है| मनुष्य के जीवन में सुख दुख का विशेष प्रभाव होता है जो, मन को भ्रमित अवस्था में भेज देता है| सुख हो या दुख दोनों ही स्थितियां, मनुष्य का विवेक क्षीण कर लेतीं हैं इसलिए, मनुष्य को सुख दुख से ऊपर आनंद की अवस्था में वास करना चाहिए जो, देवताओं का स्थान बताया गया है लेकिन, वहाँ पहुँचने के लिए, स्वयं को इन्द्रियों से संचालित होने से रोकना होगा और अपने अस्तित्व की सत्यता का परीक्षण करना होगा तत्पश्चात जीवन में जो, अनुपयोगी है सर्वप्रथम उसे बाहर निकालना होगा जिसे, वेदों की भाषा में नेति नेति कहा जाता है अर्थात न मैं, ये हूँ और न मैं, वो हूँ| यही मंत्र धीरे धीरे मन की मलिनता को हटा देता है और आत्मा का सत्य, निखर कर सामने आ जाता है लेकिन, यह सब करने के लिए, अपने दुख को पहचानना होगा जो, आज आपका मोह है कल, वही कष्टकारी सिद्ध होगा| मनुष्य जो भी प्राप्त करना चाहता है वह, सांसारिक प्रभाव से हो रहा है| इसे अपने मन का सच समझना ही, अज्ञान है| फिर भला, कैसे इसका परीक्षण किया जाए? तो, आपको बता दें, अपने जीवन के इतिहास को देखकर आप समझ सकते हैं कि, बचपन से लेकर अब तक, आपने कितने विषयों से खुशियाँ प्राप्त करनी चाहीं लेकिन, कुछ ही दिनों में, सभी विषय महत्वहीन हो गए| यदि आप अपने इंद्रियों को वश में कर लें तो, निश्चित ही स्वर्ग के स्वामी कहे जाने वाले इन्द्र, मन की शांति प्रदान करेंगे जिसे, वास्तविक स्वर्ग कहा जाता है| संसार से संचालित होने वाले मनुष्य ही, अपने इन्द्रियों के प्रभाव में होते हैं| यही जीवन का अंधकार है| अतः विवेक से चलना ही, ज्ञानी मनुष्य का कर्त्तव्य है|

स्वर्ग कैसे मिलता है?

स्वर्ग कैसे मिलता हैः How to reach heaven?
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स्वर्ग किसी विशेष स्थान को नहीं कहा जाता| न ही, पृथ्वी के परे कोई ऐसा ग्रह है जहाँ, देवताओं का वास होता हो| स्वर्ग लोग मन की उस अवस्था को कहते हैं जब, मनुष्य सुख दुख के चक्रव्यूह से बाहर होता है| फिर चाहे, वह धनी हो या निर्धन, वह स्वर्ग पहुँच सकता है हालाँकि, मनुष्यों के सामने स्वर्ग की कल्पना, सांसारिक सुखों के रूप में की गई है| लोगों का मानना है कि, स्वर्ग में सुंदर अप्सराओं के साथ, उत्तम भोजन और सुख सुविधाएँ प्रदान की जाती है जहाँ, उड़ने वाले यान पलक झपकते ही, किसी भी स्थान में ले जा सकते हैं हालाँकि, यह परी कथाओं की भांति कल्पना ही कही जाएगी जिसे, बच्चों को सुनाने के लिए उपयोग किया जाता है अर्थात सांसारिक मनुष्य, आध्यात्मिक दृष्टि से बालक होता है जिसे, स्वर्ग नर्क की चर्चा करके ही, संचालित किया जा सकता है अन्यथा दुनियाँ तीव्रता से, विनाश की ओर अग्रसर होगी| ऐतिहासिक ग्रंथों में उपलब्ध ज्ञान, द्वैत और अद्वैत के तौर पर दिया गया है किंतु, जब भी अधूरा ज्ञान लिया जाएगा तो, इसी प्रकार मनुष्य अपने अनुसार, अपने भगवानों से लेकर, स्वर्ग तक की कल्पना करेगा हालाँकि, विज्ञान ने अपनी खोज के माध्यम से, जागरूकता फैलाने का कार्य किया है जो, युवाओं को जीवन का सही अर्थ समझने के लिए, आवश्यक है ताकि, अपने जीवन के दुख को समझने योग्य, दृष्टी प्राप्त हो सके ताकि, निराशा त्यागकर स्वर्ग की ओर बढ़ा जा सके|

 

मनुष्य का मूल स्वभाव शांति है जिसकी, प्राप्ति शुद्ध चित्त के साथ ही की जा सकती है चूँकि, संसार माया है जिसे, हम पहचान नहीं पाते| आपने देखा होगा, जिस व्यक्ति से कभी प्रेम था, आज वही विरोधी की भांति, व्यवहार कर रहा है या जो वस्तु, पहले हृदय के सबसे निकट थी, आज उसकी ओर दृष्टि ही नहीं जाती| यह कैसे हुआ? तो, आपको बता दें कि, संसार में जो भी विषय मनुष्य को आकर्षित करते हैं वह, उसके अतीत की जानकारियों का प्रतिबिंब होते हैं| जैसे, कोई व्यक्ति बचपन से, अपनी जाति को श्रेष्ठ समझता है तो, निश्चित ही वह किसी और जाति के व्यक्ति को, निश्छल भाव से प्रेम नहीं कर सकेगा| हाँ किंतु, वह अपनी जाति के व्यक्ति के मोह में अवश्य, फँस जाएगा जो, आगे चलकर बंधन बनेगा है और बंधन ही दुख की उत्पत्ति है| अब यहाँ दोष, उस सामाजिक व्यवस्था का है जिसने, बिना ज्ञान के ही मनुष्य को, श्रेष्ठ कहलाने का अवसर प्रदान किया जिससे, सांसारिक जगत ही, सत्य लगने लगा और सांसारिक मनुष्य, परमानंद से परे, नरक में जीने को विवश हुए| व्यक्ति को यह समझना होगा कि, शारीरिक मृत्यु के पश्चात, कुछ प्राप्त नहीं होने वाला और न ही जीते जी, वह कुछ ऐसा प्राप्त कर सकता जिससे, परम शान्ति उद्भूत हो सके| हाँ, यदि सांसारिक विषयों की कामना शून्य हो जाए तो, निश्चित ही परम आनंद की प्राप्ति की जा सकती है किंतु, यह बात संसारियों के लिए समझना उसी प्रकार कठिन है, जिस प्रकार एक बंदर के लिए, शांत बैठना| मनुष्य का मन चंचल है जो, किसी भी विषय को अपने अनुभवों से ही आँकता है और अनुभव, भ्रम का ही प्रतिरूप है जो, किसी भी पल परिवर्तित हो सकता है| किसी स्थान पर, कभी सुख का अनुभव होता था| आज वही स्थान, मानसिक वेदना का कारण है| किसी व्यक्ति का साथ, पहले मनमोहन प्रतीत होता था| आज वही, मस्तिष्क की उलझन का निर्माता है| यह सारी स्थितियां, माया के द्वारा प्रदान की गईं हैं, जब व्यक्ति अपनी आत्मा से दूर होता है तो, वह माया के निकट पहुँच जाता है और माया से आसक्ति ही, दुखों को जन्म देती है अतः अपने जीवन के व्यर्थ विषय को, पहचानते हुए मन के सत्य को बाहर आने देना ही, श्रेष्ठ साधना होगी|

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