हिंसा और अहिंसा (hinsa aur ahinsa explained in hindi):
मानव समाज में हिंसात्मक प्रवृत्ति साधारण बात है| वस्तुतः स्वार्थी मनुष्य हिंसा को जन्म देता है और परमार्थ मार्ग में चलने वाला व्यक्ति, अहिंसात्मक दृष्टिकोण रखता है हालाँकि, किसी भी भांति की क्रूरता को हिंसा नहीं कहा जा सकता किंतु, जब अपने निजी लाभ के लिए, कर्तव्य किए जाते हैं तो, वह स्वतः ही हिंसा का रूप धारण कर लेते हैं| जिसके परिणाम भयावह होते हैं| हालाँकि, कोई भी व्यक्ति जानबूझकर हिंसा का मार्ग नहीं अपनाता बल्कि, लोभ लालच से उत्पन्न हुई सोच, उसे अंधा बना देती है| कुछ लोगों का प्रश्न है कि, भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को शस्त्र उठाने की प्रेरणा दी तो, क्या वह हिंसा करने को उकसा रहे हैं? तो इसका जवाब है जी नहीं, केवल हत्या करना हिंसा नहीं कहलाती बल्कि, अपने निजी स्वार्थ के लिए विषय वस्तुओं का अधिग्रहण करना ही वास्तविक हिंसा है जो, दुर्योधन द्वारा की गई| अतः धर्म से चलने वालों की रक्षा करना ही, श्रेष्ठतम कर्तव्य है| निम्नलिखित बिन्दुओं में इसका स्पष्टीकरण उपलब्ध है|
- हिंसा क्या है?
- अहिंसा क्या है?
- अहिंसा का महत्व क्या है?
- हिंसा का क्या कारण है?
- हिंसा को कैसे रोका जाए?
हिंसा और अहिंसा दो विपरीत मार्ग है जहाँ, हिंसात्मक बनना मनुष्य का शारीरिक लक्षण हैं किंतु, अहिंसा का मार्ग मानवीय चेतना का गुण है, जिसके बिना आनन्दित रह पाना असंभव है| लेकिन सवाल यह है कि जब हम हिंसा और अहिंसा के पैमाने नहीं समझते तो, किसी भी भांति की कठोर प्रतिरोधात्मक कार्यवाही को हिंसा मान लेते हैं| यदि एक पिता अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए कठोर बर्ताव करता है तो, इसे हिंसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि, पिता अपने निजी स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि, बच्चे के भविष्य के लिए, उसे प्रताड़ित कर रहा है किंतु, यदि पिता अपने व्यापारिक लाभ के लिए, बच्चे को उसकी इच्छा के विरुद्ध, शिक्षा लेने पर दबाव बनाता है तो, निश्चित ही इसे हिंसा कहा जाएगा| अब, यह कैसे हो सकता है, एक ही बात हिंसा और अहिंसा, दोनों कैसे हो सकती है? तो, आपको बता दें यही आध्यात्मिक ज्ञान है जिसकी, अनुभूति हमारे पूर्वाग्रह को सीधी चुनौती देती है| चलिए नीचे दिए गए प्रश्नों से, इसे जानने का प्रयत्न करते हैं|
हिंसा क्या है?
अज्ञानता में किया गया प्रत्येक कार्य हिंसा कहलाता हालाँकि, आम लोगों के लिए, शारीरिक या आर्थिक क्षति, हिंसा मानी गयी है जो, अपूर्ण सत्य है| हिंसा को देखना इतना आसान नहीं| मनुष्य के सोचने के आधार पर ही, इसका आंकलन किया जा सकता है| मनुष्य यदि खेती भी करता है तो, जीव हानि होती है तो, क्या यह भी हिंसा है? अब यहाँ दो बातें हैं| यदि खेती लोगों का जीवन बचाने के लिए की जा रही है तो, हिंसा नहीं कही जाएगी लेकिन, केवल भोग के लिए की गई कृषि, हिंसा ही कहलाएगी| अब यहाँ भोग का अर्थ, ऐसे मनुष्यों को भोजन देने से है जो, केवल अपने निजी स्वार्थों के लिए, जीवन जी रहे हैं क्योंकि, मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसे, चेतना रूपी मन प्राप्त हुआ है अर्थात वह, परिस्थितियों के आधार पर चुनाव का मार्ग अपनाता है और जो न्यूनतम क्षति के साथ, प्राप्त हो उसे ही उपयोग करता है| एक उदाहरण से समझते हैं| यदि मनुष्य अपने जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, प्रकृति का उपयोग करता है तो, इसे हिंसा नहीं कह सकते किंतु, यदि मनुष्य ऐशो आराम के लिए, वन काट रहा है| पहाड़ तोड़ रहा है| भूमि खनन कर रहा है तो, इसे हिंसा ही कहा जाएगा|
अहिंसा क्या है?
चेतन मन के द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य, अहिंसात्मक कहलाता है| चेतन मन का आशय, ऐसे व्यक्ति से है जिसने, मृत्यु के सत्य को पहचान लिया हो और जो जन्म के झूठ से पूर्णतः अवगत हो अर्थात वह जानता हो कि, उसका शरीर कामनाओं का पिटारा है| उसे अपने शरीर के अनुसार नहीं बल्कि, अपनी चेतना के अनुसार जीवन जीना है| अतः जो द्वैत से मुक्त है, अपना-पराया भूल चूका है, वही व्यक्ति अहिंसा वादी होता है और उसके द्वारा किए गए कार्य, निजी स्वार्थों की अपेक्षा, सार्वजनिक हित के लिए, समर्पित होते हैं| उसके जीवन का उद्देश्य, अपने स्वार्थों की पूर्ति करना नहीं होता और न ही, विषय वस्तुओं का भोग करके आनंद प्राप्ति की कामना होती| वह तो अनंतता के सिद्धांत पर काम करता है| उसकी कामना क्षणभंगुर वस्तुओं को एकत्रित करने की नहीं होती बल्कि, वह तो अपने कर्म सभी की उन्नति के लिए समर्पित करता है| ऐसा व्यक्ति यदि हत्या यही करेगा तो, वह अहिंसा ही कहलायेगी| जब हत्या धर्म की रक्षा के लिए की जा रही हो, तब यह मानवीय हितों के अनुरूप होती है जैसे, भगवान श्रीकृष्ण ने, अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित न किया होता तो, कदाचित् आज दुर्योधन को मानने वाले अधिक होते और तब लोग, अपनी परिश्रम से नहीं बल्कि, अपनी शारीरिक शक्ति से अधिकार जताने को, धर्म समझते| तब दुर्बल मनुष्यों का शोषण, आम बात होती| फिर इंसानों और जानवरों में क्या अंतर होता| जंगल के नियम, मनुष्य को कभी तृप्ति नहीं दे सकते| आज भी यदि मनुष्य दुखी है तो, उसका सबसे बड़ा कारण, उसकी जीवन शैली है जो, शरीर केंद्रित है न कि, आत्मा केंद्रित अतः अपने अहंकार को, धर्म कहना उचित नहीं क्योंकि, धर्म वह नहीं जो, जन्म से प्राप्त होता है बल्कि, जो अपने अतीत को त्यागने के बाद उद्दीप्त हो, उसे वास्तविक धर्म समझना चाहिए| अपने अतीत की धारणाओं को परधर्म कहना ही, उचित होगा और परधर्म ही, मनुष्य का अंधकार है इसलिए, अपने धर्म तक पहुँचना मानव का प्रथम लक्ष्य होना चाहिए तभी, अहिंसा के मार्ग को देखा जा सकेगा|
अहिंसा का महत्व है?
अहिंसा ही एक ऐसा मार्ग है जो, मनुष्य की चेतना जागृत कर सकता है| चेतन व्यक्ति वह होता है जो, अपने शरीर से संचालित नहीं होता बल्कि, सत्य ही उसका वाहक है| समाज के लिए, हिंसात्मक प्रवृत्ति घातक होती है| जब कोई समाज स्वार्थ को प्राथमिकता देने लगे और भोग को अपने जीवन का आधार बना ले तो, अहिंसा की उत्पत्ति नहीं हो सकती| अहिंसा तो, संघर्षपूर्ण मनुष्य की जीवन शैली का अंग है जो, केवल करूणा भाव से प्राप्त की जा सकती है| मनुष्य के जीवन में, अज्ञानता का होना ही हिंसा है अर्थात मनुष्य स्वयं को जाने बिना अहिंसात्मक कार्य भी करे तो, आवश्यक नहीं कि, वहाँ हिंसा न हो| उदाहरण के तौर पर, यदि एक पिता अपने बेटे से अंधा प्रेम करता है तो, इसे हिंसा ही समझा जाएगा क्योंकि, यही प्रेम भविष्य में बेटे के लिए, दुखदायी सिद्ध होगा| इसके विपरीत यदि, पिता बेटे को कामनारहित द्रष्टा की भांति प्रेम के साथ साथ शिक्षा के लिए प्रेरित करता है और उस दौरान वह, कठोर बर्ताव भी रखता है तो, इसे अहिंसा कहा जाएगा क्योंकि, यही वास्तविक निर्माणाधीन प्रक्रिया है इसलिए, अहिंसा युक्त पथ पर चलने के लिए, आत्मज्ञानी होना अनिवार्य होता है|
हिंसा का क्या कारण है?
मनुष्य का अहंकार ही, हिंसा का मुख्य कारण है| जब हम स्वयं को प्राथमिकता देने लगते हैं तो, अंधे हो जाते हैं फिर, निजी लाभ हमारा उद्देश्य होता है और यही भावना, हिंसा को जन्म देती है| लोभ, लालच, क्रोध, मोह, घृणा आदि गुण मनुष्य को हिंसात्मक भाव प्रदान करते हैं| आपने देखा होगा, प्रत्येक व्यक्ति की हिंसा को लेकर अलग अलग धारणा है| कोई पशु हत्या करने तक को हिंसा नहीं मानता और कोई, छोटे से कीड़े के मरने को भी, क्रूरता समझता है| अंतर केवल मनुष्य के अहंकार का है अर्थात जो व्यक्ति, जितनी संकुचित मानसिकता का होगा, उतना ही हिंसक होगा है और जो, विराट हृदयी व्यक्ति होगा, उसकी दृष्टि सारे जगत के लिए, समान होगी| फिर वह अपने कष्ट को, किसी और के घाव से अलग नहीं समझेगा| अतः मनुष्य में प्रेम की कमी और स्वार्थ की अधिकता ही हिंसा का जन्मदाता है|
हिंसा को कैसे रोका जाए?
सर्वप्रथम मनुष्यों को अपनी हिंसा और अहिंसा की परिभाषा बदलनी होगी क्योंकि, जो बात किसी के लिए हिंसा है, वही बात किसी के लिए अहिंसा हो जाती है| सभी के अपने अपने पैमाने हैं| कोई अपने शरीर के अलावा सभी का शोषण करना अच्छा समझता है| तो कोई, केवल अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों के अतिरिक्त, सभी को पराया कहता है तो कोई, अपने समाज के अलावा तो, कोई अपने देश के अलावा अर्थात यदि हम नैतिकता के दायरे में केवल, अपने स्वार्थों को स्थान देंगे तो, हिंसात्मक भाव होना साधारण बात होगी| हिंसा को रोकने का एकमात्र उपाय आध्यात्मिक ज्ञान है जिससे, मनुष्य को न्यूनतम उपभोग की शिक्षा दी जा सके| चूँकि, पृथ्वी की क्षमता इतने अधिक मनुष्यों को, भोग करवाने की नहीं है| अतः द्वन्द तो, हमेशा बना ही रहेगा| यहाँ सभी की अलग अलग मान्यताएं हैं जो, एकमत नहीं होने देती| मनुष्यों में दैहिक भाव का क्षय, मन में अहिंसा तत्व स्थापित कर सकता है हालाँकि, शारीरिक भाव से मुक्ति के लिए, सभी धर्मों में मार्ग बताए गए हैं जिन्हें, ग्रंथों के एकाग्र अध्ययन से समझा जा सकता है|
अहिंसा मार्गी मनुष्य, अपने जीवन में आनंद से अभिभूत रहता है| जो, प्रेम में है वही, वास्तविक प्रेम कर सकता है लेकिन, जब प्रेम का दायरा सीमित हो, जिसका लक्ष्य केवल सांसारिक विषय वस्तुओं का भोग हों और जो निजी स्वार्थों से उत्पन्न हुआ हो, ऐसे प्रेम को सच नहीं कहा जा सकता| ऐसा प्रेम दुख का जनक होता है क्योंकि मोह, मनुष्य की अज्ञानता का प्रतीक है और जब मनुष्य, अपने शरीर से मोह करता है तो, वह स्वार्थी प्रवृत्ति से जुड़ जाता है और फिर हिंसा दिखाई देना बंद हो जाती है जिससे, मनुष्य अपनी मुक्ति से दूर होता जाता है और शारीरिक भाव की निकटता, उसके जीवन को नर्क बना देती है| अतः हम कह सकते हैं, अहिंसा का अमृत ही, दैहिक अहंकार के विष को विफल कर सकता है|
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