धार्मिक पात्र (dharmik patra logical explained in hindi)
मनुष्य के जीवन में, धर्म और उससे जुड़ें महत्वपूर्ण पात्रों का, क्या योगदान है, यह जानना अति आवश्यक है| आज पूरा विश्व शांति से जीवन जीना चाहता है, फिर क्यों, आपस में इतना विरोध दिखाई देता है? हम अपने आस पास के लोगों को या अपनी प्रकृति को, कैसे समझ सकते हैं, जब तक उनके विषय का पूर्णावलोकन न हो? इस लेख में धर्म से जुड़ी हुई, दिव्य चेतनाओं का वर्णन है| जिन्होंने, या तो इस पृथ्वी पर जन्म लिया या गुणों के रूप में सदा हमारे बीच बने हुए हैं| भारत एक आध्यात्मिक केंद्र है जहाँ, कई ऐतिहासिक ग्रंथों की रचना की गई है जिनके, माध्यम से मानव शिक्षा देने का प्रयास हुआ किंतु, आज अधिकांशतः धार्मिक पात्र (dharmik patra), मनोरंजन का माध्यम बन के रह गए हैं जहाँ, कोई उनसे जुड़ी बातों को वैज्ञानिक तथ्यों से जोड़कर देखता है तो, कोई अनुपयोगी समझते हुए, उनके बारे में कुछ जानना ही नहीं चाहता| रामायण और महाभारत, दो ऐसे ग्रंथ हैं जिनके, पात्रों के जीवन से, मानवता का सीधा संबंध है| राम से लेकर, रावण या कृष्ण से लेकर, कर्ण सभी धर्म अधर्म का महत्त्वपूर्ण अंग है जिन्होंने, अपने अभिनय से, यह बताने का प्रयास किया कि, कैसे कर्मों का, क्या परिणाम मिलने वाला है? आज सबकी अपनी व्यक्तिगत विचारधारा है किंतु, उसका संबंध अहंकार से है जो, मनुष्य के जन्म से प्राप्त होता है जिसकी, निष्क्रियता ही आत्मशांति है| यह व्याख्यान, इस पुस्तक का सबसे बड़ा लेख है जहाँ, निम्नलिखित आध्यात्मिक प्रश्नों का उत्तर दिया गया है|
- धर्म क्या है?
- अधर्म क्या है?
- सनातन क्या है?
- ओम क्या है?
- देवता कौन हैं?
- राक्षस कौन है?
- परम ब्रह्म कौन हैं?
- ब्रह्मा कौन हैं?
- विष्णु कौन हैं?
- शिव कौन हैं?
- सरस्वती कौन हैं?
- लक्ष्मी कौन हैं?
- शक्ति कौन हैं?
- भस्मासुर कौन है?
- रक्तबीज कौन है?
- इंद्र कौन हैं?
- राम कौन हैं?
- सीता कौन हैं?
- भरत कौन हैं?
- लक्ष्मण कौन हैं?
- दशरथ कौन हैं?
- कैकेयी कौन हैं?
- मंथरा कौन हैं?
- स्वर्ण मृग कौन है?
- रावण कौन है?
- हनुमान कौन हैं?
- सुरसा कौन है?
- बाली कौन हैं?
- सुग्रीव कौन हैं?
- जामवंत कौन हैं?
- जटायु कौन हैं?
- नल नील कौन हैं?
- विभीषण कौन हैं?
- कुंभकरण कौन है?
- कृष्ण कौन हैं?
- कंस कौन है?
- यशोदा कौन हैं?
- सुदामा कौन हैं?
- राधा कौन हैं?
- मीरा कौन हैं?
- अर्जुन कौन हैं?
- कर्ण कौन है?
- दुर्योधन कौन है?
- युधिष्ठिर कौन हैं?
- अभिमन्यु कौन हैं?
- धृतराष्ट्र कौन है?
- गांधारी कौन है?
- द्रोणाचार्य कौन हैं?
- एकलव्य कौन हैं?
- भीष्म कौन हैं?
- संजय कौन हैं?
- शकुनि कौन है?
- बर्बरीक कौन है
- व्यास कौन हैं?
- हिरण्यकश्यप कौन है?
- प्रहलाद कौन हैं?
- होलिका कौन है?
- नरसिंह कौन हैं?
- दुर्गा कौन हैं?
- बुद्ध कौन हैं?
- अंगुलिमाल कौन है?
- अष्टावक्र कौन हैं?
- राजा बलि कौन हैं?
- नारद कौन हैं?
- परशुराम कौन हैं?
- अवधूत कौन हैं?
- हयग्रीव कौन हैं?
- मोहिनी कौन हैं?
- कामदेव कौन हैं?

धर्म की क्या आवश्यकता है, यह केवल वही समझ सकता है जो, उच्चतम भोगों को प्राप्त कर चुका है और तब भी, उसकी तृष्णा अतृप्त रह गयी है| मनुष्य का जीवन, भ्रम रूपी बंधनों से घिरा हुआ है जहाँ, अंधविश्वास कष्टकारी होता है| इस लेख में कुछ ऐसे पात्रों का भी वर्णन मिलेगा जो, किसी भी व्यक्ति के जीवन से, जुड़ी परिस्थितियों से सीधे संबंधित होंगे| धर्म ही मनुष्यता है, जिसकी समझ प्रत्येक व्यक्ति को होनी चाहिए| ताकि मानव, जीवन के यथार्थ आनंद से तृप्त हो सके| वैसे तो, यदि सभी संप्रदायों की दिव्य चेतनाओं का वर्णन किया गया तो, इस किताब का अंत करना असंभव हो जाएगा किंतु, कुछ विशेष चरित्रों का वर्णन, अवश्य उल्लेखनीय है जिसे, निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से दर्शाया गया है|
धर्म क्या है?

अहम का आत्मा की ओर बढ़ना ही, धर्म कहलाता है| धर्म का संबंध मानव संप्रदाय से नहीं बल्कि, उसकी जीवन शैली है| जिसके संयम से, वह मुक्ति की यात्रा करता है| यदि सामान्य अर्थों में देखा जाए तो, अपने जीवन के दुखों की वास्तविकता समझना ही, धर्म कहलाता है लेकिन, जब मनुष्य एक दुख से मुक्त होकर, दूसरे दुख को धारण करता है तो, उसकी जीवन शैली, अधार्मिक हो जाती है| सांसारिक मनुष्य, सामाजिक परंपराओं का निर्वहन करना ही, धर्म समझते हैं जहाँ, वह प्राचीन विधियों के माध्यम से, ईश्वर आराधना करते हैं जिसे, प्रारंभिक तौर पर उचित माना जाना चाहिए किंतु, जिस प्रकार बालक के विकसित होने पर, उसे खिलौने नहीं वास्तविक जीवन से जुड़े विषयों का, ज्ञान दिया जाता है उसी प्रकार, मनुष्य को भी, अपनी धार्मिक यात्रा में, मानने से अधिक, जानने पर विचार करना चाहिए तभी, जीवन के सत्य से परिचय होगा| लगभग सभी प्रकार के ग्रंथों में, परमात्मा को या तो इस सृष्टि के बाहर का कहा गया या उसे नकार दिया गया है और जो, उसे देखने का दावा करते हैं, वह विज्ञान के सामने मौन रह जाते हैं| अब यह बात एक ही दिशा की ओर संकेत करती है जिसे, अनंत या शून्य कहा जाता है| अब यदि ईश्वर अनंत है तो, धर्म का अर्थ ही, नित्य होना चाहिए चूँकि परम्पराएँ, विधियाँ या धार्मिक आकृतियाँ समय और काल अनुसार, परिवर्तनीय हैं जिनका उपयोग, मनुष्य को निद्रा से जगाने के लिए तो हो सकता है किंतु, सदैव चेतन रहने के लिए, वास्तविक धर्म में विचरण करना अनिवार्य है|
अधर्म क्या है?

मनुष्य के जीवन में जो कुछ भी अज्ञानवश है, उसे ही अधर्म कहते हैं| अधर्म का संबंध, मानव अंधकार से हैं| जो कार्य मानव अहंकार या भय में वृद्धि करें, वह अधार्मिक कृत्य कहलाते हैं| सांसारिक मनुष्य, नैतिक दुष्कृत्य को ही, अधार्मिक मान बैठते हैं जिससे, वह श्रेष्ठ धर्म की व्याख्या से वंचित रह जाते हैं| प्रकृति के अंदर, किसी भी कार्य को समय, स्थान व सत्य के अनुरूप करना ही धर्म हैं लेकिन, बड़े से बड़ा कार्य जो, सत्य की कसौटी पर पराजित हो, उसे अधर्म ही कहाँ जाएगा भले ही, वह कर्म किसी मनुष्य को, ससम्मान राजा ही क्यों न बना दें, वह धर्म नहीं होगा|
सनातन क्या है?

ब्रह्माण्ड का अनंत ही सनातन है जो, सत्य का वाहक है जो, काल से परे हैं जिसका, कोई रूप नहीं जिसे, अहंकार से प्राप्त न किया जा सके और जो, स्थायित्व का विराट प्रतिबिंब हो, वही सनातन है जिसे, शाश्वत कहा गया है| सनातन कोई समूह नहीं बल्कि, मानवता का सिद्धांत है जो, मनुष्य की आत्मा से संबंधित है जैसा कि, पुस्तक में उपलब्ध लेखों से स्पष्ट है कि, सभी मनुष्यों की एक ही आत्मा है अतः सभी सनातन हैं किंतु, मनुष्य का वह अंश ही, सनातन होगा जो, न जन्म से मिला है और न ही, मृत्यु के बाद समाप्त होगा अर्थात कोई संप्रदाय या जाति वर्ग, सनातन नहीं क्योंकि, वह तो शरीर के मिटने के बाद ही, समाप्त हो जातें हैं| इस संसार में जो भी देखा यह अनुभव किया जाता है, वह सनातन नहीं बल्कि, मानव संयोगावस्था का निष्कासन या उत्कृष्ट चेतना विस्तारण ही, सनातन प्रारब्ध है जिसे, मानवीय मूल स्वभाव कहा गया है|
ओम क्या है?

आमजन ॐ(ओम्) को, एक ध्वनि के रूप में जानते हैं जबकि, ओम मुक्ति मार्ग का सिद्धांत है जो, तीन शब्दों से मिलकर बना है| “अ” “उ” “म्” जिसे, तीन चरणों में वर्गीकृत किया जा सकता है, “अ” मानव जीवन के आरंभ को दर्शाता है, “उ” देह भाव से ऊपर की स्थिति का द्योतक है तथा “म्” अनंत मौन का परिचायक है| ओम ब्रम्हांड की स्थिरता है जो, निरंतर गतिशील अनंतता प्राप्त करता है| ओम एक सिद्धि है जिसे, जीवन के संपूर्ण ज्ञान का मंत्र कहा जा सकता है| ओम को अपनाने वाला मनुष्य, सांसारिक आडंबर को पहचानते हुए, जीवन के सत्य से अवगत होता है| ओम को शिव से जोड़कर भी देखा जाता है| शिव ही विनाशक हैं जो, जीव के अंत से संबंधित हैं| कहा गया है, आत्मा नश्वर है, शिव वही नश्वरता हैं जिसे, शून्य कहा गया है जिसका, संबंध ओम के अंतिम चरण मौन से है|
देवता कौन है?

मानवीय चेतना ही देवता का प्रतिरूप है| जिसके ऊपर उठते ही, मनुष्य के कर्म सत्य केंद्रित होते हैं| जैसे- श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध की देह को देवता नहीं कहा गया बल्कि, उनके कर्मों को, सिद्धांत बनाया गया जो, ग्रंथों के रूप में विकसित हुई जो, आज संपूर्ण मानव जगत को, प्रकाशित कर रहे हैं| स्वार्थ की निष्क्रियता ही, सत्य का प्रकाश उद्दीप्त कर सकती है जो, किसी भी मनुष्य को देवता बना सकता है| देवता प्रत्येक वह मनुष्य होता है जो, अपने जीवन को परमार्थ के लिए, समर्पित करे अर्थात उसके कार्य, निजी लाभ के लिए न होकर, धर्म की सार्थकता के लिए हों| जिस प्रकार, कृष्ण ने अर्जुन को धर्म के लिए, युद्ध हेतु प्रेरित किया लेकिन लंका की ओर जाते हुए, हनुमान और सुरसा संवाद में, हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए, युद्ध न करने का निर्णय किया| अब यहाँ, यदि बात केवल शक्ति प्रदर्शन की होती तो, हनुमान पीछे नहीं हटते किंतु, धर्म लंका की ओर जाना है न कि, व्यक्तिगत अहंकार में, संसार से उलझना| उसी प्रकार, दुर्योधन का वध भी आवश्यक था अतः निजी स्वार्थों से मुक्त मनुष्य ही, राम के कार्य में समर्पित हो सकता है जिसे, देवता का प्रतिबिंब कहा जाएगा|
राक्षस कौन है?

देह भाव में जी रहा प्रत्येक मनुष्य, राक्षस की श्रेणी में आता है जो, अज्ञानवश अपनी व्यक्तिगत सत्ता को ही सत्य समझ बैठता है और यही मानव अहंकार, राक्षसी योनी का परिचायक है हालाँकि, आम लोगों में राक्षसों की छवि, विशालकाय सींग और दांतों वाले, दैत्याकार मानव के रूप में प्रचलित है जिसे, मानव कल्पना कहना ही, उचित होगा| अब यह प्रश्न उठता है कि, क्या अपना परिवार चलाने वाला व्यक्ति या अपनी मित्रता निभाने वाला व्यक्ति, राक्षस हो सकता तो, दुर्योधन कौन था? जिसने स्वार्थवश, केवल अपने दैहिक अहंकार को ही महत्व दिया और रावण, जिसने दुनिया का संपूर्ण ज्ञान ग्रहण करने के बाद भी, राक्षसी प्रवृति का त्याग नहीं किया अतः यह बात पूर्णतः स्पष्ट है कि, हम अपने आस पास जिन लोगों को भी, व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए, जीते देखें उसे राक्षस का ही रूप कहा जाएगा| जो सदैव नर्क में वास करते हैं अर्थात उनका हृदय अशांत ही पाया जाता है|
परम ब्रह्म कौन है?

ब्रह्माण्ड के शून्य तत्व को, परम ब्रह्म कहा जाता है| जिसके क्रियान्वयन से, सृष्टि की संरचना हुई जो, सृष्टि के विनाश के पश्चात भी, विद्यमान् रहने वाला है, वही ब्रह्म का द्योतक है| श्री राम को भी, ब्रह्म कहा गया है जिसे, निम्न सूत्र के माध्यम से प्रदर्शित किया जा सकता है| राम ब्रह्म परमारथ रूपा, अविगत अलख अनादि अनूपा अर्थात राम दूसरों के अर्थ के लिए, जीने वाले ब्रह्म तत्व चेतना हैं जिनका, कोई आकार और रूप नहीं, वह केवल अनंतता हैं| अब यहाँ, मनुष्य को समझने में भ्रम हो सकता है कि, फिर दशरथ नंदन राम कौन है? तो, आपको बता दें कि, मानव दोहरी यात्राओं से मुक्ति के मार्ग तक पहुँचता है| प्रथम, जहाँ दैहिक गुणों का समावेश हो और दूसरा, निर्गुणी चेतना का बोध| जैसे, भगवान बुद्ध शरीर के रूप में, सिद्धार्थ बनकर पैदा हुए लेकिन, उनकी चेतना यात्रा, बुद्ध बनने के पश्चात प्रारंभ हुई| यहाँ शारीरिक रूप से वह, साधारण मनुष्य की भांति ही हैं| जिनके गुणों की तुलना, सांसारिक व्यक्तियों से की जा सकती है किंतु, बुद्ध रूपी चेतना की तुलना तो, केवल ब्रह्म से ही होगी जो, व्यक्तिगत अहंकार निष्क्रियता का परिणाम है|
ब्रह्मा कौन है?

सृष्टि के संचालन के लिए, तीन घटनाओं का होना आवश्यक है| जन्म, मरण और पालन जहाँ, ब्रम्हा को जन्म से जोड़कर देखा गया है| मानवता का प्रथम व्यक्ति, मनु भी ब्रह्मा की ही रचना कही गई है| ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता भी कहा जाता है जिन्हें, चार मस्तक वाले देवता के रूप में, प्रदर्शित किया गया है| यहाँ, भगवान ब्रह्मा सृष्टि का रचनात्मक गुण हैं| यदि कोई वैज्ञानिक, किसी प्रकार का अविष्कार करता है तो, उसके अंदर भी ब्रम्हा का अंश माना जाएगा अर्थात दुनिया में किसी भी तरह की उत्पत्ति ब्रह्मा हैं| रचनात्मक कार्यों के लिए, ज्ञान की आवश्यकता होती है जिसे, माता सरस्वती का गुण कहा गया है इसलिए, भगवान ब्रह्मा के साथ, देवी सरस्वती को पत्नी के रूप में, चित्रित किया गया है| ब्रह्मा के चार मस्तक, चारों दिशाओं का संकेत है| ब्रम्हा द्वारा जन्मीं गंगा, जीवन उत्पत्ति मार्ग हैं जिन्हें, जैविक रचना का प्रतीक माना जाता है| जैसा कि, वैज्ञानिक तथ्यों से स्पष्ट है कि, सर्वप्रथम जीवन की उत्पत्ति जल से ही हुई| उसी प्रकार, हतोत्साहित मनुष्य को, पुनः जागृत करना भी, रचनात्मक कार्य कहलाता है, जिसका प्रतीक ब्रम्हा पुत्र, जामवंत माने गए हैं| अतः किसी भी विषयवस्तु का उत्पादन, कहीं न कहीं ब्रम्हा से ही, संबंधित होगा| ब्रम्हाण्ड में उत्पन्न होने वाले ग्रह, नक्षत्र या संपूर्ण तारा मंडल, जो एक न एक दिन, नष्ट होने वाले हैं, सभी को ब्रह्मा की रचना कहा गया है|
विष्णु कौन है?

भगवान विष्णु ही सृष्टि के पालनहार हैं| अब यहाँ भरणपोषण करने वाले व्यक्तित्व को, भगवान विष्णु से प्रदर्शित किया गया है इसीलिए, उनकी पत्नी के रूप में, देवी लक्ष्मी को दिखाया गया| जैसा कि, बिना धन के किसी का पालन पोषण करना असंभव है अतः धन की देवी, लक्ष्मी का साथ होना ही, व्यक्ति को पालक की उपाधि प्रदान कर सकता है| भगवान राम और कृष्ण को भी, विष्णु का अवतार कहा गया क्योंकि, दोनों ही अवतारों का संबंध, मानवता के पालन पोषण और संरक्षण से है अतः जो मनुष्य निः स्वार्थ भाव से, किसी भी जीव का भरण पोषण करता है तो, वह विष्णु का ही अंश कहा जाएगा|
शिव कौन है?

शिव ही परम ब्रह्म शून्य हैं| जिनका संबंध, सृष्टि के विनाश से है| जैसा कि, उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि, ब्रम्हा और विष्णु, सृष्टि के सृजन और संरक्षण के लिए, उत्तरदायी हैं, उसी प्रकार भौतिक संरचनाओं का विघटन, शिव का प्रभाव माना जाता है| मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु, काम वासना होती है जो, मनुष्य की मृत्यु के पश्चात ही, मिटती है लेकिन, शिव की शरण में जाने वाला मनुष्य, जीवन के नर्क से मुक्त हो सकता है| जिस अवस्था को, अहंकार शून्यता के पश्चात ही, प्राप्त किया जा सकता है| शिव को शक्ति के स्वामी के रूप में भी जाना जाता है जहाँ, शक्ति संसार का प्रतिबिम्ब है अर्थात् ब्रम्हाण्ड का भौतिक रूप जिसे, विज्ञान के द्वारा देखा जा सके| वह शक्ति का ही रूप, जिसका विलय, शिव की शून्यता में होता है| आध्यात्मिक ज्ञान होते ही, मानव मन चेतन हो उठता है किंतु, अज्ञानता में, वही शक्ति माया बन जाती है और मनुष्य, उसी के चक्र में फंसकर, मृत्यु तक पहुँच जाता है| शिव और शक्ति का मिलन ही, सम्पूर्ण जगत है जहाँ, शिव को ब्रम्हांड की रिक्तता और शक्ति को भौतिकता कहा जाता है| आदि शंकराचार्य द्वारा रचित निर्वाण षट्कम में शिव का अद्भुत वर्णन प्रस्तुत है|
सरस्वती कौन है?

सरस्वती ज्ञान का प्रतीक है| जिसका संबंध, मानव रचनात्मकता कार्यों से है| देवी सरस्वती को भगवान ब्रह्मा की पत्नी के रूप में देखा जाता है| जिनका आसन कमल पुष्प है| जिस प्रकार ज्ञान की उत्पत्ति, सांसारिक विषयों से होती है, उसी प्रकार कमल भी, दलदल से उत्पन्न होता है जिसे, ज्ञान प्राप्ति का प्रतिरूप कहना ही, उचित होगा| संसार में निर्माण या रचनात्मक कार्यों के लिए, सरस्वती का साथ होना आवश्यक होता है तभी, ब्रम्हा रूपी गुण, सृजन कार्य संपन्न करता है| अतः बिना ज्ञान के अविष्कार, असंभव है| यहाँ देवी सरस्वती, साकार रूप नहीं बल्कि, विद्यार्थी का निराकार रूपी गुण हैं अर्थात जो मनुष्य, ज्ञानार्जन अवस्था में है उसे, सरस्वती का ही अंश कहा जाएगा किंतु, यदि ज्ञान का उपयोग, धनार्जन या व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति के लिए किया गया तो, वही ज्ञान व्यक्तिगत दुख का कारण बनेगा जिसे, सरस्वती का रूप नहीं माया कहा जाएगा|
लक्ष्मी कौन हैं?

लक्ष्मी को धन की देवी कहा गया है जिन्हें, भगवान विष्णु की पत्नी के रूप में देखा जाता है| अब यहाँ, सभी प्रकार के धन को लक्ष्मी नहीं कहते बल्कि, केवल वही धन, जिसका उपयोग पालन पोषण और संरक्षण में किया जाए, वह लक्ष्मी का रूप होता है, इसके अतिरिक्त, व्यक्तिगत स्वार्थ में व्यय या अधार्मिक कार्यों से अर्जित किया हुआ धन, माया कहलाती है जो, मानवीय दुख का कारण बनती है| अतः पूर्ण बोध से अर्जित किया हुआ धन ही, लक्ष्मी का प्रतीक है और परमार्थ मार्गी, लक्ष्मीपति मानव ही, भगवान विष्णु का अंश कहलाता है| जिसके जीवन का उद्देश्य, जीव के पोषण, शिक्षण और रक्षण से होता है वही, लक्ष्मी को धारण करने योग्य है|
शक्ति कौन है?

संपूर्ण जगत, शक्ति का प्रतिरूप है| शक्ति को शिव का अंग कहा गया है अर्थात शून्यता से, उत्पन्न होने वाला संसार ही, माता शक्ति है| शक्ति की उपासना करने वाले व्यक्ति, बड़ी से बड़ी विपत्तियों का संहार कर सकते हैं लेकिन, संसार को भोग का माध्यम बनाने वाले मनुष्य, दुख के सागर में ही विलीन होते हैं| सांसारिक संपन्नता, मानव अहंकार में वृद्धि करती है जिससे, संबंधित व्यक्ति माया के चक्र में फँस जाता है परिणामस्वरूप बुद्धि के पतन का आरंभ होता है जो, अंततः मानवीय चेतना के विनाश का कारण बनता है| अतः जगत से प्राप्त होने वाले तत्वों को, स्वामी की भाँति नहीं अपितु, भक्त की भांति ग्रहण करना चाहिए| जिनका उपयोग सत्य केंद्रित कार्यों हेतु ही होना चाहिए| उदाहरण के तौर पर, किसी गाड़ी का उपयोग, चोरी करने के लिए भी किया जा सकता है और किसी श्रेष्ठ कार्य के लिए भी, अब यहाँ यदि वाहन का उपयोग, सार्थक कार्य में हुआ तो, वह मनुष्य की शक्ति बनेगा किंतु, यदि व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु किया गया तो, वही बाहर माया बन जाएगी जो, अंततोगत्वा दुख का कारण ही बनेगी| इसलिए, जाग्रत अवस्था में ही, सांसारिक विषयों से संबंध स्थापित किए जाने चाहिए, जिसे विवेक कहा जाता है|
भस्मासुर कौन है?

भस्मासुर एक ऐसा राक्षस था जिसने, शिव से वरदान प्राप्त करने के पश्चात, अपने व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु उन्हें ही भस्म करना चाहा किन्तु, विष्णु ने अपना मायावी मोहिनी रुप रखकर, भस्मासुर का ही विनाश कर दिया| अब यहाँ बात संकेतित है| शक्ति के स्त्रोत पर, आक्रमण करने वाला मनुष्य, भस्मासुर कहलाता है अर्थात जिस पेड़ से फल प्राप्त हो, उसे काटने वाले मनुष्य को, भस्मासुर राक्षस का प्रतीक कहा जाएगा जिसके, अहंकार का अंत उस पेड़ के द्वारा भले न हो किंतु, भगवान विष्णु की पालनहार माया, उसका विध्वंस अवश्य करेगी| भस्मासुर एक ऐसा मनुष्य है जो, अपने अदम्य सामर्थ्य से, अपार शक्ति का सृजन करता है लेकिन, अहंकार के प्रभाव में वह, स्वयं को ही सृष्टि का संहारक समझने लगता है और माया के मद में, अपने शक्ति के स्रोतों को नष्ट कर बैठता है|
रक्तबीज कौन है?

रक्तबीज एक राक्षस था जिसे, भगवान शिव से वरदान प्राप्त था कि, जहाँ जहाँ उसके रक्त की बूंदें गिरेंगी वहीं, उसका प्रतिरूप जन्म लेगा किंतु, माँ काली के प्रकोप से, उसका सर्वनाश हुआ| जहाँ उसके रक्त की बूंदें गिरतीं, माँ काली उसे अपने जीभ से चाट कर, समाप्त कर देतीं| अब यदि सांकेतिक तौर पर देखा जाए तो, प्रत्येक प्रभावी मनुष्य जो, अधर्म का साथ देता है| वह रक्तबीज है अर्थात किसी प्रभावी अधर्मी व्यक्ति के शरीर को तो, मिटाया जा सकता है लेकिन, उसके विचार किसी दूसरे व्यक्ति के मन में, अपनी जगह बना लेते है परिणामस्वरूप उसके अधार्मिक कार्य, बड़ी संख्या में पूर्ण होने लगते हैं अतः उसे समाप्त करने के लिए, अहंकारी मानवीय विचारों को चुनौती देनी होगी तभी, रक्तबीज को बढ़ने से रोका जा सकेगा| भस्मासुर सर्वश्रेष्ठ अहंकार का प्रतिबिंब है जिसे, आत्मज्ञान से ही निष्क्रिय किया जा सकता है|
इन्द्र कौन है?

इन्द्र को स्वर्ग का स्वामी कहा गया है जिसे, सभी देवताओं का प्रतिनिधित्व करने के लिए, चुना जाता है| अब यहाँ तार्किक रूप से देखें तो, मानव इंद्रियां ही उसकी स्वामी हैं और उन्हें नियंत्रित करने वाला मनुष्य, देवताओं की श्रेणी में आता है| अहम् संसार में, अपनी इंद्रियों द्वारा संचालित होता है किंतु, एक ज्ञानी मनुष्य, इन्द्रियों से परे अपनी चेतना जिसे, तीसरी आँख भी कहा जाता है, उसी के माध्यम से, संसार को देखते हैं और राक्षसी योनी में, जाने से बच जाते हैं| राक्षस और देवता में, ऊपरी तौर पर कोई अंतर नहीं होता| दोनों का रूप साधारण, मनुष्य की भांति ही दिखाई देता है| अंतर तो, केवल विचारों का है जहाँ, इन्द्रियाँ के आवेग में, सामान्य व्यक्ति अपनी दो आँखों से देखा हुआ ही, सत्य समझ बैठता है और लोभग्रसित होकर, सांसारिक विचरण में लग जाता है जिसे, राक्षस प्रवृति कहा जाता है और यहीं से, संबंधित व्यक्ति के कष्टकारी, जीवन का आरम्भ होता है|
राम कौन हैं?

भगवान राम के बारे में, कई कथाएं प्रचलित है जहाँ, उनका वर्णन विभिन्न रूपों में किया गया है| पारिवारिक जीवन जीने वाले मनुष्य, राम के साकार रूप से ही अवगत हैं जहाँ, राम राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र थे लेकिन, यदि राम का वास्तविक स्वरूप समझा जाए तो, राम निराकार ब्रह्म रूपी चेतना हैं, जिनका न तो, जन्म हुआ और न ही, उनकी मृत्यु होगी बल्कि, वह तो सृष्टि के आरम्भ से हैं| वस्तुतः मनुष्य के दो शरीर होते हैं| एक स्थूल शरीर और दूसरा सूक्ष्म शरीर जहाँ, स्थूल शरीर को, शारीरिक आकृति से पहचाना जाता है किंतु, सूक्ष्म शरीर विचारों का समूह कहलाता है हालाँकि, विचार भी यदि दैहिक प्रभाव से उत्पन्न हों तो, सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर में, कोई भेद नहीं रह जाता तो| फिर सूक्ष्म शरीर के वास्तविक रूप को, कैसे उजागर किया जा सकता है? वस्तुतः मनुष्य के अंदर जो भी विषय, वस्तु या पदार्थ परिवर्तनीय है वह, स्थूल शरीर कहलाते हैं और इसके अतिरिक्त, शेष बचने वाला शून्य तत्व, सूक्ष्म शरीर कहलाएगा| प्राचीन धार्मिक पात्रों की उपयोगिता तभी है जब, वह मानव जीवन में सहायक हों लेकिन, किसी भी धार्मिक पात्र का सम्पूर्ण जीवन, मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं होता| प्राचीन काल में, आत्मरक्षा के लिए, धनुष बाण का उपयोग किया जाता था किंतु, क्या विज्ञान के सामने, उनकी कोई उपयोगिता रह जाएगी| अतः दिव्य आत्माओं से प्राप्त ज्ञान या उनके द्वारा किया गया समर्पण ही, अपनाने योग्य हो सकता है| विधियाँ या परंपराएं, काल के स्वरूप पर आधारित हैं जिनका, सर्वहित में निर्वहन अनिवार्य है| राम, मानव जीवन का सिद्धांत हैं जिनका अनुगमन, संसार के दुखों से मुक्ति दिला सकता है लेकिन, जब उनके निराकार रूप में, मानव अहंकार, हनुमान की भाँति समर्पित हो जाए| अब यहाँ, राम के काम से आशय, लंका विजय करना नहीं बल्कि, धर्म से चलना है|
सीता कौन है?

सीता को राम की पत्नी के रूप में जाना जाता है| सीता अधर्म की पराजय का कारण थीं जो, सत्य समर्पित संघर्ष का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जिन्हें, माँ शक्ति का रूप कहा गया है| शक्ति अर्थात जगत माया जो, रावण के वध का कारण माना गया| अब यहाँ सीता वह विषय है जिसे, रावण जैसे ज्ञानी के द्वारा, सम्मान दिया जाना चाहिए किंतु, अहंकार में डूबा हुआ मनुष्य, सांसारिक विषयों को, भोग की लालसा से, प्राप्त करना चाहता है जो, उसके विनाश का कारण बनता है| यहाँ सीता, सत्य की परछाई हैं अर्थात वह व्यक्ति जो, सत्य निष्ठ मनुष्य या विचारधारा का साथ दे और तब, उसकी विपत्तियाँ व्यक्तिगत नहीं रह जाती बल्कि, उसका साथ परम ब्रह्म देते हैं जिन्हें, किसी भी रूप में देखा जा सकता है|
भरत कौन है?

दशरथ के चारों पुत्रों में से एक भरत जिन्होंने, अपने ज्येष्ठ भ्राता राम के लिए, राजसिंहासन का परित्याग कर दिया और 14 वर्षों तक, अपने मस्तक में, राम की चरण पादुका धारण करके, जीवन व्यतीत करते रहे| क्या आज का कोई भाई, ऐसा कर सकता है? वस्तुतः यहाँ बहुत बड़ी सीख छुपी हुई है जो, सुग्रीव और बाली की कहानी के, तुलनात्मक अध्ययन से पता चलेगी| जब बाली राक्षस से युद्ध के दौरान, एक गुफा में फँस गया तब, सुग्रीव ने सोचा कि, उसका भाई जीवित नहीं रहा और उसने राक्षस के बाहर आने के डर से, गुफा का द्वार बंद कर दिया और अपने राज्य, वापस आ गया किंतु, जैसे ही बाली उस राक्षस को मारकर, गुफा से बाहर आया तो, वहाँ बाली को न पाकर, क्रोधित हो गया और अपने राज्य पहुँचकर, सुग्रीव को अपने सिंहासन पर बैठे देख, अपना आपा खो बैठा और उसके बाद क्या हुआ, आप सभी भलीभाँति परिचित होंगे? यहाँ, शिक्षा ये मिलती है कि, यदि कोई भी मनुष्य, अपने से संबंधित व्यक्ति के दुख या समस्या के समय, उसका स्थान लेने का प्रयत्न करेगा तो, सांसारिक माया, दोनों में मतभेद पैदा कर देगी जहाँ, भले त्रुटि किसी की न हो लेकिन, भुगतान दोनों को करना पड़ेगा| रामायण या महाभारत के सभी पात्र, अपने जीवन से सीख देने का प्रयत्न कर रहे हैं| अब यदि भरत सिंहासन पर बैठ भी जाता है तो, राज्य की जनता उन्हें कभी अपना राजा स्वीकार नहीं करती| उसी प्रकार, यदि भगवान राम ने, धोबी के कहने पर सीता ने अग्नि परीक्षा न दी होती तो, राम के पुत्रों को भी, राजा के रूप में सम्मान प्राप्त नहीं होता| धार्मिक पात्रों का जीवन, सामान्य मनुष्यों की तुलना में विपरीत है| आज सभी को राम चाहिए किंतु, अपने घर में नहीं, पड़ोसी के यहाँ| आज सभी को बुद्ध चाहिए लेकिन, अपने घर में नहीं, दूसरों के यहाँ और यही विडंबना, मनुष्य सांसारिक दुखों की जड़ है|
लक्ष्मण कौन है?

राम के अनुज भ्राता लक्ष्मण जिन्होंने, अपने भाई के संघर्षपूर्ण जीवन को अपनाया और राम के धर्मयुद्ध में साथ देकर, अपना व्यक्तित्व अमर कर लिया| वनवास तो, राम को दिया गया था फिर, लक्ष्मण ने उसे क्यों धारण किया? क्या वह राजा नहीं बन सकते थे तो, यहाँ लक्ष्मण सत्य समर्पित चेतना का, निरुद्देश्य समर्थन करने वाले, मनुष्य का प्रतीक हैं| इस संसार में प्रत्येक मनुष्य, गौरवान्वित जीवन प्राप्त करना चाहता है किंतु, अज्ञानवश माया का प्रवाह, उन्हें बहा ले जाता है इसलिए, धार्मिक पात्रों का जीवन, बहुउपयोगी हो जाता है जहाँ, लक्ष्मण के स्थान पर कोई सामान्य व्यक्ति होता तो, वह वनवासी जीवन स्वीकार नहीं करता और गद्दी प्राप्त करने के बाद, लोगों के सामने अपना सम्मान खो बैठता और यही अपमान, उसका जीवन दुखों से ग्रसित कर देता| यहाँ लक्ष्मण अपने कर्मों से, यही बताना चाह रहे हैं कि, सत्य मार्ग में चलने वाले भाई, बंधुओं का साथ देना ही, धर्म है न कि, उनकी अनुपस्थिति में, उनका स्थान प्राप्त करके उपभोग करना|
दशरथ कौन है?

रामायण का सबसे चर्चित पात्र, सूर्यवंशी राजा दशरथ जिन्होने, पुत्र वियोग में अपने प्राण त्याग दिए, दशरथ के चार पुत्र थे| जिनके नाम- राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न हैं| दशरथ के जीवन से सीखने को मिलता है कि, मोह में किया गया निर्णय, दुखदायी होता है जैसा कि, दशरथ ने भरत की माता कैकई को, मोहवश वचन दिया कि, वह जो चाहें उनसे माँग सकतीं हैं परिणामस्वरूप उन्होंने, अपने पुत्र भरत के लिए, अयोध्या का राज्य और दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम के लिए 14 वर्ष का वनवास माँगा जो, कैकई के स्वार्थ का परिचायक है हालाँकि, इसे धर्म हित में माना गया लेकिन, इसका सबसे अधिक दुख, दशरथ को ही भुगतना पड़ा|
कैकेयी कौन है?

दशरथ की तीन पत्नियों में से, एक कैकेयी जिनके गर्व से, भरत का जन्म हुआ| कैकेयी ने मंथरा के षड्यंत्र में फँसकर, अपने पति दशरथ से, सौतेले पुत्र राम के लिए, चौदह वर्ष का वनवास माँगा और अपने पुत्र भरत के लिए, सिंघासन की माँग कर उसे, भ्रात वियोग के दुख से सराबोर कर दिया| कैकेयी उस व्यक्ति का प्रतीक हैं जो, किसी अन्य के बहकावे में आकर, धर्म से अधिक स्वार्थ को प्राथमिकता दे बैठता है जो, उनके दुखों का कारण बनता है हालाँकि, व्यक्तिगत समझ से, उन्होंने तो अपने पुत्र भरत के हित में ही कार्य किया किंतु, अज्ञानतावश वह अपना ही, अहित कर बैठीं परिणामस्वरूप पुत्र वियोग और पति वियोग जैसे दुखों ने, उनका संपूर्ण जीवन नारकीय कर दिया| व्यक्ति को किसी भी प्रकार का निर्णय लेते समय, सत्य को ही केंद्र पर रखना चाहिए न कि, स्वार्थ| यही कैकेयी के जीवन की शिक्षा है|
मंथरा कौन है?

रामायण में मंथरा एक ऐसा पात्र हैं जिसे, राम के वनवास की आधारशिला कहा गया| मंथरा के षड्यंत्र से ही कैकेयी की मति, भ्रष्ट हुई और उन्होंने अपने आनंदित जीवन में, दुखों का विष घोल लिया| मंथरा मानसिक नकारात्मकता का प्रतीक है अर्थात जो मनुष्य, अपने व्यक्तिगत लाभ हेतु, किसी का जीवन प्रभावित करे, वही मंथरा है हालाँकि, मंथरा के इस कार्य को समाज के हित में, घटित कर्म कहना ही, उचित होगा| जैसे नारद मुनि, पूर्ण बोध धर्म की स्थापना हेतु, राक्षसों और देवताओं के विचार, प्रभावित करते हैं उसी प्रकार, मंथरा भी धर्मयुद्ध का प्रारंभिक बिंदु हैं जिसकी, अनुपस्थिति अधर्म को, बल प्रदान करती है|
स्वर्णमृग कौन था?

लंकापति रावण का भेजा हुआ राक्षस, मारीच ही स्वर्णमृग रूपी माया का प्रतिबंध था| जिसका पर्याय मृगतृष्णा कहलाती है| रामायणानुसार, राम के वनवास काल में, एक सोने के हिरण को देखते ही, सीता आकर्षित हो गईं और उन्होंने, अपने स्वामी श्री राम से, उसे पाने की आकांक्षा व्यक्त की और जैसे ही श्रीराम, उसकी ओर बढ़ें तो, उन्हें आभास हुआ कि, यह कोई मायावी राक्षस है जो, स्वर्णमृग के वेश में, कपटपूर्ण उद्देश्य लेकर आया है तत्पश्चात श्रीराम ने, उसे अपने तेजस्वी बाणों से, मूर्छित कर दिया और वह ऊँचे स्वर में, अलाप करने लगा तभी, दूर खड़ी सीता को लगा कि, कदाचित राम किसी संकट में हैं, अतः उन्होंने राम के छोटे भाई लक्ष्मण को, उनके पास जाने को कहा किंतु, वह सीता को वन में अकेले छोड़कर नहीं जा सकते थे इसलिए, लक्ष्मण ने उनकी सुरक्षा हेतु, एक रेखा खींच कर उनसे आग्रह किया कि, वह इसका उल्लंघन न करें लेकिन, लक्ष्मण के जाते ही, रावण ने अपने षड्यंत्रपूर्वक ऋषि अभिनय से, सीता का हरण कर लिया और अपने साथ बलपूर्वक लंका ले आया| अब यहाँ मारीच छल का प्रतिरूप है जो, किसी भी मनुष्य को, भ्रमित कर सकता है| इस संसार में, जो दिखाई सुनायी देता है या जिसे हम अनुभव कर पाते हैं, आवश्यक नहीं कि, वह सत्य हो| स्वर्णमृग रूपी राक्षस से, शिक्षा प्राप्त होती है कि, जब व्यक्तिगत अनुभव श्रेष्ठ ज्ञानी साक्षात विष्णु अवतार श्रीराम को भी, मतिभ्रम से प्रभावित कर सकता है तो, सांसारिक मनुष्यों को दिखाई दे रहे भौतिक पदार्थ या अनुभवयुक्त विषय, मिथ्या क्यों नहीं हो सकते? अतः किसी भी विषय को, कई दिशाओं से जाँचा जाना अनिवार्य है|
रावण कौन है?

रामायण का सबसे दुर्दांत राक्षस जिसने, अपने कठोर तप से, शिव से वरदान प्राप्त किया और उन्हीं शक्तियों का उपयोग करके वायु, अग्नि, इन्द्र ,चंद्र, सूर्य, शनि इत्यादि तत्वों को बंदी बना लिया और जब उसका अहंकार, चरम पर था तब, उसने माता सीता को, अपमानित करने का दुस्साहसी कार्य किया जिससे, उसका सर्वनाश हो गया| यहाँ रावण एक शक्तिशाली ज्ञानी मनुष्य का प्रतीक है जो, धन धान्य से सम्पूर्ण हो और अहम् के मद में, धर्म को छोड़ते हुए, असहायों पर अत्याचार करने लगे| रावण सर्वश्रेष्ठ ज्ञान और बल का प्रतिबिंब था| जिसके पास दस विषयों पर, एक साथ विचार करने का सामर्थ्य था| आम मनुष्य एक समय में एक ही विषय पर चर्चा कर सकता है किंतु, यहाँ रावण को मानव बल की श्रेष्टता का सूचक बताने का प्रयत्न किया गया| जिसके अनुसार रावण अपार बुद्धिमत्ता का स्वामी कहलाता है लेकिन, यदि वह धर्म से अधिक स्वार्थ को प्रधानता देने लगे तो, उसका अंत निकट है फिर भले ही, वह विश्व का सबसे शक्तिशाली, व्यक्ति ही क्यों न हो| मानव धर्म सत्य के साथ चलना है न कि, अपने दैहिक विचारों के साथ, व्यक्तिगत विलासिता हेतु, दुष्कृत्य करना| अतः यह आवश्यक नहीं कि, जो मनुष्य धनी है या उसे विज्ञान या अध्यात्म से संबंधित संपूर्ण ज्ञान है तो, वह राक्षस नहीं हो सकता| वैसे तो, ब्रह्म के मार्ग में चलने वाले मनुष्यों को, ब्राह्मण ही माना गया है जिसे, भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा का सम्मान करके, प्रमाणित किया किंतु, यदि ज्ञानी ब्राम्हण या कोई भी मनुष्य, अपने बल के प्रभाव से, भक्षक बन जाए तो, उसे राक्षस ही कहना उचित होगा| केवल परमार्थी ही, श्रेष्ठता का परिचायक हो सकता है और उन्हें ही ब्रह्म पथ प्रदर्शक, कहा जाएगा इसके विपरीत, ज्ञान और बल का व्यक्तिगत लाभ हेतु, आडंबर करने वाले मनुष्य, रावण कहलायेंगे जो, अनंत विषयी दिशाहीन व्यक्तित्व के परिचायक होंगे और अपने कर्मों से सम्पूर्ण वातावरण या पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित करेंगे|
हनुमान कौन है?

हनुमान को वानर कहा गया है अर्थात वन में रहने वाले, नर या पुरुष जिन्होने, घोर पशु प्रवृत्ति के बनिस्बत, ज्ञान का उच्चतम स्तर प्राप्त किया| हनुमान के पास शारीरिक बल होने के साथ साथ, अष्टसिद्धि (अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इसित्व, वसित्व) का स्वामित्व भी था| जिनका प्रस्तावित विवरण, कई ग्रंथों में उपलब्ध है हालाँकि, यह कोई चमत्कारी शक्तियाँ नहीं बल्कि, सांसारिक जीवन जीने का श्रेष्ठ मार्ग हैं जो, मनुष्य को व्यक्तिगत दुःखों से अछूता रखता है और जीवन को सार्थक बनाने में सहायक है| आप भी जानते होंगे कि, यदि कोई व्यक्ति हनुमान की भांति बुद्धि, विवेक और बल से परिपूर्ण हो तो, वह क्या पाना चाहेगा? लेकिन, हनुमान स्वामित्व से अधिक, सेवक या अनुचर बनाने में आनंदित क्यों होते थे? तो, आपको जानना चाहिए कि, हनुमान की श्रेष्टता, उनके भक्ति भाव में ही निहित है जिसे, सत्य के प्रति समर्पण कहा जाता है| अब सत्य किसी व्यक्ति में हो या कर्तव्यों में, यह केवल आत्मज्ञान से ही, पहचाना जा सकता है| आत्मज्ञान, व्यक्तिगत अहंकार को निष्क्रिय कर प्राप्त किया जा सकता है हालाँकि, यह कोई सामान्य बात नहीं| कई लोगों ने इस मार्ग पर, अपना संपूर्ण जीवन न्यौछावर कर दिया तब भी, आत्मज्ञान से अस्पृश्य रहे| हनुमान पूज्यनीय हैं क्योंकि, उन्होंने वन में रहते हुए, जो ज्ञान प्राप्त किया, वह अकल्पनीय है| यहाँ तक कि, मानव दुख का सबसे बड़ा कारण, काम वासना रूपी अग्नि को, बाल्यावस्था में ही निरर्थक कर देना जिसे, सूर्य निगलने के प्रतीक स्वरूप प्रस्तुत किया गया, कोई सामान्य बात नहीं| हनुमान चिरंजीवी हैं अर्थात् वह प्रतिक्षण, संसार में ही समाये हुए हैं जो, किसी भी मनुष्य के शरीर से, प्रगट हो सकते हैं| इन्हें पहचानना आसान है| जो भी ज्ञानवान, शक्तिशाली मनुष्य, राम रूपी चेतना का अनुसरण कर रहा है, वही हनुमान अंश होगा| अतः हनुमान श्रेष्टता और सार्थकता से जीवन जीने का सिद्धांत हैं|
सुरसा कौन है?

हनुमान की लंका यात्रा के दौरान, उत्पन्न हुई समुद्री बाधा, राक्षसी सुरसा के नाम से जानी जाती है| जामवंत ने हनुमान को सीता की जानकारी जुटाने के लिए, लंका जाने हेतु प्रेरित किया और तभी हनुमान, अपने स्वामी श्री राम के कार्य हेतु तैयार हो गए और जब वह समुद्री मार्ग में थे तभी, एक सुरसा नामक राक्षसी ने, उन्हें रोकने का प्रयास किया और हनुमान को युद्ध हेतु ललकारा| हनुमान ने भी प्रारंभिक तौर पर, अपना बल प्रदर्शित किया किंतु, जैसे ही उन्हें आभास हुआ कि, मेरा प्राथमिक कार्य तो, लंका जाना है, तुरंत उन्होंने, अपने विवेक का उपयोग करते हुए, सुरसा के सामने तुच्छ प्राणी की भांति, हाथ जोड़कर नमन करने लगे परिणामस्वरूप सुरसा का अहंकार मिट गया तत्पश्चात उसने, हनुमान को आगे जाने का रास्ता दिया| अब यहाँ सुरसा, किसी भी मनुष्य की, उस बाधा का प्रतीक है जो, उसके नित्य लक्ष्यों को प्रभावित करती है| हनुमान और सुरसा संवाद से ग्रहण करने योग्य बात यह है कि, सामर्थ्य होते हुए भी, अवांछित विपत्तियों के सामने, बोधयुक्त नतमस्तक होना, विवेकपूर्ण कार्य कहलाता है| अतः अपने आवश्यक कार्यों को प्राथमिकता देते हुए, संकीर्णता का निर्णय लेना ही, ज्ञानी मनुष्य की पहचान है| यदि हनुमान चाहते तो, सुरसा से युद्ध करके, उसे पराजित कर सकते थे लेकिन, यदि युद्ध किया जाता तो, वह अपने नियत समय पर लंका नहीं पहुँच पाते और जैसा कि, उनका कोई व्यक्तिगत जीवन नहीं था| उनके जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य, राम की भक्ति था तो, भला वह अपने अहंकार को प्राथमिकता कैसे दे सकते थे? हाँ, यदि हनुमान के नमन करने के बाद भी, सुरसा आघात करती तो, निश्चित ही हनुमान इसका प्रत्युत्तर, अपने बल पूर्वक प्रहार से देते जो, विवेकपूर्ण बलवान मनुष्य की पहचान है|
बाली कौन है?

रामायण का अति बलिष्ठ पात्र, किष्किन्धा का राजा जिसने, अपने बाहुबल से बड़े से बड़े राक्षस को परास्त किया किन्तु, उसका अहंकार इतना प्रबल हो गया कि, आत्ममंथन किये बिना ही, उसने अपने अनुज भ्राता, सुग्रीव को भी युद्ध हेतु ललकारा| वस्तुतः एक दिन सुग्रीव और बाली एक राक्षस के पीछे, एक गुफा तक पहुँचे और वहाँ बाली ने गुफा के अंदर जाकर, लंबे समय तक युद्ध किया और जब गुफा के अंदर से, तीव्र पुकार के साथ, रक्त की धारा प्रवाहित हुई तो, उसे देखते ही सुग्रीव को आभास हुआ कि, संभवतः उसका ज्येष्ठ भ्राता बाली नहीं रहा तभी, सुग्रीव ने राक्षस के भय से, गुफा का द्वार बंद कर दिया और अपने राज्य वापस आ गया किंतु, यह तो उसका भ्रम था क्योंकि, वह चीख बाली की नहीं बल्कि, राक्षस की थी| जिसका वध करने के बाद, बाली अपने राज्य पहुँचा और सुग्रीव को सिंहासन पर विराजा देख, आग बबूला हो गया और अगले ही पल, बलपूर्वक उसने सुग्रीव को, राज्य के बाहर निकाल दिया| अपने भाई के डर से, सुग्रीव वन में रहने को विवश हुए कित्नु, उन्होंने राम की सहायता की परिणामस्वरूप राम के हाथों, अधर्मी बाली को अपने प्राण त्यागने पड़े| यहाँ बाली एक ऐसे शक्तिशाली व्यक्ति का प्रतीक है जो, क्रोधवश किसी भी दृश्य को, बिना विचार किए सत्य समझ बैठता है और अज्ञानवश, अपने विनाश को आमंत्रित करता है| शक्ति के साथ बुद्धि और विवेक होना अनिवार्य है इसलिए, हनुमान श्रेष्ठतम बल का प्रतीक हैं किंतु, बाली अहंकार युक्त बल का, जिसकी उत्पत्ति स्वार्थ से होती है|
सुग्रीव कौन है?

किष्किन्धा नरेश बाली का अनुज भ्राता जिसे, सुग्रीव के नाम से जाना जाता है| बाली से प्रताड़ित सुग्रीव को, जैसे ही श्रीराम का साथ मिला तो, उसका आत्मविश्वास बढ़ गया और उसने, योजनानुसार बाली के अत्याचारों से, मुक्ति प्राप्त की किंतु, किष्किन्धा नरेश बनते ही, सुग्रीव अपने व्यक्तिगत जीवन में विलीन हो गए जिससे, राम के कार्य में विलंब होने लगा तत्पश्चात् राम ने लक्ष्मण से, सुग्रीव को उसका वचन याद दिलाने को कहा| अपने ज्येष्ठ भ्राता, श्रीराम का आदेश पाकर लक्ष्मण, सुग्रीव के महल पहुँचे और ऊँचे स्वर में ललकारते हुए, उन्हें उनका कर्तव्य याद दिलाने लगे| लक्ष्मण के भय से, सुग्रीव पुनः अपने कार्य में लग गए और फिर अंतिम समय तक, राम की मित्रता निभायी| यदि सुग्रीव का बाली के प्रति सम्मान से, भरत के भातृ प्रेम की तुलना की जाए तो, सुग्रीव की त्रुटियां देखी जा सकती हैं| जहाँ राम के वनवास की सूचना प्राप्त होते ही, भरत ने स्वयं को भी, उसी अवस्था में पहुँचा दिया किंतु, सुग्रीव ने तनिक भी, प्रतीक्षा या प्रयास किए बिना ही, बाली का स्थान ग्रहण किया जिससे, दोनों भ्राताओं में मतभेद उत्पन्न हुए और दूसरी भूल, किष्किन्धा का राज्य सिंहासन प्राप्त होते ही, राम की सहायता करना भूल गए हालाँकि, उन्होंने अपनी सेना को राम के कार्य में, पूर्ण समर्पण के साथ लगा रखा था किंतु, जो भाव एक मित्र के दुख में होना चाहिए, सुग्रीव उसे उपेक्षित कर गए जो, सांसारिक प्रवृत्ति भी कही जा सकती है| आपने देखा होगा, कुछ लोग सहायता प्राप्त करने के पश्चात, समय आने पर सहायता देने से, पीछे हटते हैं किंतु, यदि मित्र, राम लक्ष्मण की भांति, सामर्थ्यवान हैं तो, उनकी उपेक्षा करना दंडनीय हो सकता है|
जामवंत कौन है?

जामवंत का जन्म, ब्रह्मा जी की निद्रा के दौरान, जम्हाई लेने से हुआ| जामवंत महाबली होने के साथ साथ, आत्मज्ञानी भी थे, जिनका प्रमुख गुण प्रोत्साहनकर्ता का था उन्होंने, लंका विजय यात्रा में, राम के सेनापति की भूमिका निभाई और अवसाद में डूबे हुए, हनुमान को उनकी शक्तियों का पुनः आभास कराकर, प्रोत्साहित किया जिससे, राम कार्य सफलतापूर्वक आगे बढ़ सका| अब यहाँ बात प्रतीक तौर पर कही गई है ब्रह्मा तो रचनात्मक गुण है जो, ब्रह्माण्ड के कण कण में समाया है| अतः जामवन्त रचयिता की, निष्क्रियता से उत्पन्न हुए, शक्तिशाली व्यक्तित्व का प्रतीक हैं जो, यह दर्शाता है कि, यदि रचयिता निद्रा में भी हो तो भी, उनका कार्य नहीं रुकता और उनके ज्ञान से, उत्पन्न तत्व, सत्य की स्थापना हेतु, सोए हुए मनुष्यों को, जाग्रति प्रदान करता है| कोई भी शक्तिशाली विवेकवान व्यक्ति जो, सत्य समर्पित उद्देश्य हेतु, प्रोत्साहन कार्य करे, वही जामवंत का अंश कहलाएगा|
जटायु कौन है?

गिद्धराज जटायु, देव पक्षी अरुण के, तेजस्वी पुत्र थे जिन्होंने, अपने पराक्रम से, रावण का मार्ग बाधित किया और सीता हरण का संदेश, श्री राम तक पहुंचाया जिससे, सीता का पता लगाने में, सहायता प्राप्त हुई| जटायु अर्थात वह साहसी जीव जो, धर्म संकट में निरुद्देश्य, निर्भीक अपने प्राण तक त्याग दे| यदि सांकेतिक तौर पर समझें तो, संसार में विचरण करने वाला प्रत्येक मनुष्य जिसने, सत्य की रक्षा हेतु, अपना जीवन समर्पित किया उसमें, जटायु अंश निहित होगा हालाँकि, यह बात तथ्यात्मक भले ही न हो किंतु, मानव जीवन के श्रेष्ठ कर्मों से, इसका प्रत्यक्ष सम्बंध है जिसे, जीवन की सार्थकता का मार्ग भी कहा जा सकता है|
नल नील कौन हैं?

सुग्रीव सेना के दो उत्पाती वानर जो, अपनी धूर्तता के कारण, श्रापित हुए किंतु, राम के काज में, वही श्राप वरदान बन गया| वस्तुतः नल नील, वन में रहने वाले, तपस्वी ऋषि मुनियों को, प्रतिदिन परेशान करते और उनकी पूजन सामग्री, जल में फेंक दिया करते और जब उनकी धूर्त चेष्टाओं से, ऋषि हताश होने लगे तो, उन्होने नल और नील को, श्राप दिया कि वे, जो भी वस्तु, स्पर्श करके जल में फेंकेंगे, वह तैरने लगेगी किंतु, जब राम को लंका के लिए, पुल का निर्माण करना था तो, दोनों का श्राप, उपयोगी सिद्ध हुआ| उनके हाथ लगाते ही, राम नामी पत्थर जल में तैरने लगे और तभी, वानर सेना लंका तक पहुँच सकी| यहाँ नल और नील उन व्यक्तियों का प्रतीक हैं जिन्होंने, भले ही अपने अतीत में अनेक त्रुटियां की हो परिणामस्वरूप उनका मनोबल नकारात्मकता से ग्रसित हो किंतु, जैसे ही वह सत्य के मार्ग का चुनाव करते हैं तो, उनकी मनोस्थिति रूपांतरित हो जाती है और उनका मन, सकारात्मकता से प्रकाशित हो उठता है| जिसके प्रभाव से, वह बड़े से बड़ा कार्य कर जाते हैं|
विभीषण कौन है?

ऋषि विश्रवा और राक्षसी कैकसी के, सबसे छोटे पुत्र जिन्हें, विभीषण के नाम से जाना जाता है| भले ही विभीषण, राक्षसी योनी से उत्पन्न हुए थे किन्तु, वह कर्म से ब्राम्हण थे इसलिए, उन्होने अपने ज्येष्ठ भ्राता, रावण का साथ न देते हुए, प्रभु श्रीराम के चरणों में, स्थान प्राप्त किया और रावण की मृत्यु का कारण बने| विभीषण को चिरंजीवी कहा गया है अर्थात प्रत्येक युग और काल में, विभीषण अवश्य ही होंगे| इसका आशय यह है कि, जिस भी परिवार में सभी लोग अधार्मिक होंगे, उन्हीं के बीच से, एक ऐसा धर्मपरायण व्यक्तित्व उत्पन्न होगा जो, अपने ही परिवार का विनाशक बनेगा| अब या तो, वह अपने परिवार के लोगों को बदल देगा या उन्हें सांसारिक दुखों में छोड़कर, सत्य के मार्ग पर चल निकलेगा| वस्तुतः अधर्म का मार्ग चुनने वाले लोग, यह भूल जाते हैं कि, धर्म को पराजित कर पाना असंभव है| धर्म ही मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है| जिस किसी भी मनुष्य का अहंकार मिटेगा वही, धर्म का प्रवर्तक बन जाएगा जिससे, असत्य को गहरा आघात पहुँचेगा परिणामस्वरूप युद्धात्मक स्थिति का जन्म होगा| अंततोगत्वा धर्म की विजय सुनिश्चित है| यही विभीषण की जीवन शिक्षा है जो, मनुष्य को अधर्म का सखा बनने से सचेत करती है|
कुंभकरण कौन है?

रावण का अनुज भ्राता, कुंभकरण जिसे निद्रा का प्रतीक कहा गया है| कुंभकर्ण एक साहसिक, बलिष्ठ राक्षस था जिसने, ब्रह्माजी की घोर तपस्या कर, इन्द्रासन प्राप्त करना चाहा किंतु, राक्षसी प्रभाव और सरस्वती की कृपा से, उसने निद्रासन की माँग कर दी तत्पश्चात ब्रह्माजी ने, उसे सदैव निद्रावस्था में रहने का वर दिया| कुंभकरण इस बात से, बहुत दुखी हुआ उसने अपनी भूल सुधारने के प्रयास में, ब्रह्माजी से आश्वासन प्राप्त किया कि, जब उसके परिवार में संकट की घड़ी होगी तभी, उसकी निद्रा भंग होगी और वह अपने परिवार की सहायता कर सकेगा| अब यहाँ सभी तथ्यों का संयोजित अध्ययन किया जाए तो, पता चलता है कि, जो व्यक्ति अपने परिवार के निर्णायक कार्यों को, अनदेखा करे लेकिन, पारिवारिक संकट में, वह केवल अपने परिवार के पक्ष में खड़ा रहे निश्चित ही, वह कुंभकर्ण का अंश होगा| सरल शब्दों में, वह मनुष्य जो, पारिवारिक कार्यक्रमों में अपनी सहभागिता नहीं दिखाता तो, विनाश के समय उसकी निष्पक्षता भी व्यर्थ हो जाती है| फिर भले ही, उसकी बात अनुकूल हों लेकिन, उसके ज्ञान का अनादर होना निश्चित है जिस प्रकार, रावण ने कुम्भकरण की सलाह न मानकर, अपने अहंकार को प्राथमिकता दी, उसी प्रकार कुंभकर्णी प्रवृत्ति के मनुष्यों को भी, अस्वीकार्यता का सामना करना पड़ता है| जिनका अतीत उन्हें, उपेक्षापूर्ण छवि प्रदान करता है|
कृष्ण कौन है?

भगवान श्रीकृष्ण के बारे में, बहुत सी कहानियां प्रचलित हैं लेकिन, उनका वास्तविक स्वरूप भगवद्गीता द्वारा ही प्रस्तुत किया गया है जहाँ, उन्होंने अर्जुन को मुक्ति का सिद्धांत बताया है जिसे, निष्काम कर्मयोग से समझा जा सकता है| कृष्ण को सुदर्शन चक्रधारी भी कहा जाता है जहाँ, सुदर्शन चक्र कृष्ण की अद्भुत रणनीतियों का प्रतीक है जिनके, माया रूपी चक्र के, प्रभावी प्रकोप से, महाभारत का परिणाम ही, पलट गया| कृष्ण मानव चेतना के पथ प्रदर्शक हैं जिन्हें, परम ब्रह्म या सत्य भी कहा जा सकता है| भगवान् श्री कृष्ण ने, बचपन में ही अपने मामा कंस जैसे दुराचारी राक्षस का वध करके, जीवन की सार्थकता को प्राप्त कर लिया था किंतु, मनुष्य का कर्तव्य केवल, स्वयं के दुख कम करना नहीं बल्कि, दुखी व्यक्ति का दुख दूर करना है जिसे, परमानंद अवस्था कहते हैं| जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने, अर्जुन को दिव्यदृष्टि प्रदान करके, अद्भुत ज्ञान से प्रकाशित किया, उसी प्रकार मनुष्य को भी, अपने दुख पर विजय प्राप्त करने के पश्चात, परमार्थ मार्ग का चुनाव करना चाहिए जिससे, सुख दुख के चक्र से मुक्ति पाई जा सके| भगवान राम ने सांसारिक दुराचारियों से, मुक्ति दिलाने हेतु वनवास का चुनाव किया किंतु, भगवान श्री कृष्ण ने, सर्वप्रथम अपने घर में बैठे, अधर्म से युद्ध करने की सलाह दी| दोनों ही शिक्षाएँ, सांसारिक सौहार्द्र हेतु, अति आवश्यक हैं, जिनका अनुगमन, सांसारिक कष्टों से सुरक्षा प्रदान करता है|
कंस कौन है?

श्रीकृष्ण की माता, देवकी का भ्राता, यदुकुल का एक अधर्मी राजा जिसे, कंस के नाम से जाना जाता है| उसे आकाशवाणी से ज्ञात था कि, उसकी मृत्यु, उसकी बहन देवकी के पुत्र द्वारा ही सुनिश्चित है अतः मृत्यु के भय से, उसने देवकी के छः पुत्रों की हत्या कर दी किंतु, वह अपनी मृत्यु टाल नहीं सका अंततोगत्वा, सातवें पुत्र को सुरक्षित कर लिया गया और आठवें पुत्र के रूप में जन्में, श्रीकृष्ण ने अपने पराक्रमी बाहुबल से, कंस का वध करके प्रजा को, उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलायी| यहाँ कंस एक अहंकार का प्रतीक है जो, अपने कर्मों का परिणाम टालने का प्रयास कर रहा है जिससे, उसकी संलिप्तता सत्य से न होकर, कुकृत्यों से है और यही, मानव नारकीय अवस्था है जहाँ, मनुष्य संसार छूटने के भय से, प्रतिक्षण मृत्यु को प्राप्त होता है और मृत्यु से बचने हेतु पुनः दुखों से आलिंगित हो जाता है|
यशोदा कौन है?

यशोदा को माँ की मूर्ति कहा गया है| जिनके विषय में एक कथा प्रचलित है कि, बालस्वरूप कृष्ण की रक्षा करने हेतु, उनके पिता वासुदेव ने, रात्रि में उन्हें महामाया के प्रभाव से, अपने चचेरे भाई नन्द बाबा के घर पर, छोड़ दिया और तभी से, माता यशोदा ने ही, कृष्ण का पालन पोषण किया| उन्होंने भले ही कृष्ण को, अपने गर्व से जन्म न दिया हो लेकिन, वही कृष्ण की वास्तविक माँ कहलाईं| जिस प्रकार उन्होंने, अपने प्राणों की परवाह न करते हुए, एक माँ का कर्तव्य निभाया और कृष्ण को शिक्षित करके, यशस्वी योद्धा के रूप में तैयार किया जो उनके, उत्कृष्ट पुत्र प्रेम का परिचायक है| यशोदा के जीवन से, सीखने को मिलता है कि, आवश्यक नहीं कि, किसी पुत्र को गर्व से ही जन्म दिया जाए अतः किसी भी बालक को निस्वार्थ, पोषित और शिक्षित करने वाली शक्ति, यशोदा ही कहलाएँगी|
सुदामा कौन है?

बाल्यावस्था में, श्रीकृष्ण सान्दीपनि मुनि के आश्रम में ही शिक्षित हुए| वहीं उनकी मित्रता, सुदामा नाम के विद्यार्थी से हुई| सुदामा ब्राह्मण परिवार से थे| एक बार श्री कृष्ण और सुदामा, लकड़ियों की तलाश में, वन पहुँचे| कुछ समय बाद श्रीकृष्ण को भूख लगी उन्होने, सुदामा से खाने हेतु कुछ माँगा| सुदामा ने अपने पास चने होते हुए भी, कृष्ण को मना कर दिया किंतु, जैसे ही सुदामा को अपनी त्रुटि का आभास हुआ उन्होंने, कृष्ण को चने दे दिए| इस घटना के कई सालों बाद, कृष्ण तो द्वारका नगरी के राजा बने हैं कित्नु, सुदामा का जीवन निर्धनता के दलदल में डूबता चला गया| एक दिन सुदामा की पत्नी ने, उन्हें श्रीकृष्ण के पास जाने को कहा| सुदामा स्वाभिमानी ब्राह्मण थे, जिनका जीवन यापन भिक्षा द्वारा प्राप्त अनाज से ही होता था| अतः उन्होने, कृष्ण के पास सहायता के लिए, जाने से मना कर दिया तभी, उनकी पत्नी ने उन्हें, केवल मिलकर आने को कहा| अपनी पत्नी की करुणामई विनती सुनते ही, सुदामा द्वारका जाने हेतु रवाना हो गए हैं| जैसे ही, वह कृष्ण के सामने पहुँचे, कृष्ण ने उन्हें पूजनीय ब्राह्मण की भांति सम्मानित किया| और तो और, बिना उनके कुछ माँगे ही, केवल कुछ मुट्ठी चावल के बदले, सुदामा को धन धान्य से सम्पन्न कर दिया| श्रीकृष्ण ने अपने जीवन की सार्थकता, निस्वार्थ सहायता प्रदान करके ही, अर्जित की है जिस प्रकार उन्होंने, धन से सुदामा की और ज्ञान से अर्जुन की सहायता की, उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य को भी, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए हालाँकि, सुदामा ने बाल्यावस्था में, कृष्ण से न्यूनतम छल किया जिससे, उनका अधिकांश जीवन दुखः में बीता| इससे आशय विद्यार्थी सुदामा के जीवन में, सत्य की अनुपस्थिति थी| सत्य ही आनंद का आधार है अतः शिक्षा का उद्देश्य, परमार्थ आधारित होना चाहिए जिसे, भगवद्गीता में बताये, निष्काम कर्म से संबंधित कहा जा सकता है|
राधा कौन है?

कृष्ण से जुड़े सभी पात्र, मानवीय प्रेरणा हैं| जैसे, कृष्ण और राधा को प्रेम का प्रतीक कहा गया है| राधा भले ही कृष्ण की विवाहिता न रही हों, लेकिन उनका स्थान कृष्ण की पत्नियों से अधिक था| उसी प्रकार देवकी से श्रेष्ठ स्थान, यशोदा को दिया| जो यह दर्शाता है कि, कृष्ण कर्म प्रधान पहचान पर आधारित व्यक्तित्व थे| उनके लिए जाति, समाज या संस्कृति से अधिक सत्य पूजनीय था| जिसकी रक्षा हेतु, उन्होंने अर्जुन को भी, अपने परिवार के विरुद्ध, युद्ध हेतु प्रेरित किया किंतु, राधा उस व्यक्ति का प्रतीक हैं, जिसके व्यक्तिगत उद्देश्य न हों किंतु, उसका जीवन सत्य समर्पित हो| उसे ही कृष्ण की राधा या राम का हनुमान कहा जा सकता है| राधा कोई भी हो सकता है अर्थात जिसने, अपने अहंकार को, सत्य से आच्छादित कर दिया है और जो, निष्कामना के भाव से, सराबोर है| वही राधा कहलाएगा हालाँकि, सांसारिक मनुष्य, राधा और कृष्ण के प्रेम को स्त्री और पुरुष के, दैहिक प्रेम से जोड़कर देखते हैं जो, हास्यास्पद है चूँकि, कृष्ण राधा के लिए कोई शरीर नहीं, वह तो परम ब्रह्म चेतना हैं जिन्हें, प्राप्त करने हेतु, दैहिक विचार शून्यता अनिवार्य है जिसे, राधा के जीवन से चिन्हित किया जा सकता है| वही अद्भुत प्रेम का परिचायक है|
मीरा कौन है?

कृष्ण की सर्वश्रेष्ठ भक्त जिन्हें, मीराबाई के नाम से जाना जाता है| मीरा के भजनों में, कृष्ण के प्रति भक्ति का मार्मिक वर्णन मिलता है| मीराबाई और कृष्ण के काल में, भले ही विभिन्नताएँ हो किन्तु, उनका प्रेम अमृतानंद पर आधारित है अर्थात वर्तमान में भी, उसकी उपयोगिता बनी हुई है जहाँ, मीरा से आशय, सत्य के प्रेम प्रवर्तन से है| कोई भी मनुष्य, सांसारिक विषय वस्तुओं से सुखी नहीं रह सकता चूँकि, शरीर एक जड़ पदार्थ है अतः किसी ऐसे कार्य में डूब जाना, जिसकी सम्पन्नता, मानवता को प्रकाशित करें, वही अनंत चरम सुख का मार्ग है जिसे, मीरा जैसी भक्ति से ही, प्राप्त किया जा सकता है|
अर्जुन कौन है?

कुरुवंश का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन, कुंती का पुत्र था| पांडवों में, अर्जुन तीसरे स्थान पर था जिसने, अपने पराक्रम और श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन से, कुरुक्षेत्र का परिणाम ही, पलट दिया| कुरुक्षेत्र सर्वश्रेष्ठ ऐतिहासिक युद्ध का प्रमाण है जहाँ, एक ओर शक्तिशाली कौरव सेना का, स्वामित्व कर रहा दुर्योधन और दूसरी ओर, पांडवों की छोटी सी सेना के साथ, निहत्थे कृष्ण थे जिन्होंने, भगवद्गीता के अद्भुत ज्ञान से, अर्जुन को विवेक प्रदान किया ताकि, धर्म की विजय सुनिश्चित की जा सके| यदि अर्जुन की स्थिति का, पूर्णवालोकन किया जाए तो, आप पाएंगे कि, कहीं न कहीं प्रत्येक मनुष्य की स्थिति, अर्जुन की भांति ही है जो, अपने आस पास के मोह से जकड़े हुए हैं और धर्म का ज्ञान होते हुए भी, प्रतिकार नहीं करना चाहते| अर्जुन एक ऐसे शूरवीर योद्धा का प्रतीक हैं जिसमें, बुद्धि और बल की अधिकता तो है किंतु, माया के प्रभाव में वह अपना विवेक खो बैठा है| अब यदि उसे अपने दुखों से मुक्त होना है तो, कृष्ण की गीता का अनुसरण करना अनिवार्य होगा|
कर्ण कौन है?

कर्ण, कुंती का छठा पुत्र था जिसने, अपने जातिगत अपमान के कारण, कुरुक्षेत्र युद्ध में दुर्योधन का साथ दिया| कर्ण और अर्जुन के जीवन में, उनकी संगती ही, उन्हें विभिन्न बनाती है जहाँ, एक का पक्षधर दुर्योधन और दूसरे के साथ, साक्षात भगवान श्रीकृष्ण थे| कर्ण की सर्वश्रेष्ठ भूल जो, उसने सत्य से अधिक महत्व, अपनी मित्र को दिया जो, उसके विनाश का उत्तरदायी है| वस्तुतः मनुष्य की संगत ही, जीवन गति का निर्धारण करती है हालाँकि, कर्ण के निर्णय का आधार अहंकार है| जिसका जन्म, अनभिज्ञता में होता है| यहाँ कर्ण श्रेष्ठ मानवीय गुणवत्ता का प्रतीक है, जिसके जीवन में, संयोगावस्था का प्रबल प्रभाव होता है परिणामस्वरूप संबंधित चित्त, हीनता से ग्रसित हो जाता है और इस स्थिति में, जो भी सहायक हो, वही संपूर्ण संसार बन जाता है| यही मानव अधोगति है| संयोग से प्राप्त हुई अवस्था ही, भ्रामक विचारों की जन्मदाता है जिससे, आत्म स्तब्धता का हरण होता है अतः सत्य ही वह तिनका है जो, डूबते का सहारा बन सकता है|
दुर्योधन कौन है?

पांडवों का प्रतिद्वंद्वी, कौरवों का राजा दुर्योधन, अति बलिष्ठ योद्धा था| वह धृतराष्ट्र और गांधारी का पुत्र था| दुर्योधन ने अपने कुकृत्यों की सीमाएं लाँघ ली थीं जिसने, भगवान श्रीकृष्ण के समझाने पर भी, अपनी त्रुटि का आभास नहीं किया और अहम् के वशीभूत होकर, धार्मिकता को अनदेखा कर बैठा जो, उसके विनाश का कारण बना| वस्तुतः दुर्योधन उस प्रभावशाली व्यक्ति का प्रतीक है जो, अपने अहंकार की प्रबलता में, धर्म को त्याग देता है| और तो और, वह स्वयं को भाग्यविधाता से श्रेष्ठ स्थान दें बैठता है| फिर माया के सामने, कृष्ण हो या राम, दोनों ही व्यर्थ हो जाते हैं परिणामस्वरूप संबंधित व्यक्ति, काल के गाल में समाँ जाता है|
युधिष्ठिर कौन है?

धर्मराज युधिष्ठिर, माता कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र थे जो, शकुनि के षडयंत्र में फँस कर, अपना राजपाट जुए में हार बैठे और अपने भाइयों के साथ, वन में भटकने हेतु विवश हुए| युधिष्ठिर के विषय में एक बात प्रचलित थी कि, वह सदैव सत्य ही बोलते थे किंतु, वह दुर्योधन के छल को नहीं समझ सके और यही, उनके पारिवारिक दुखों का कारण बना| वस्तुतः धर्मी का आलिंगन, जब विलासिता से हो तो, अर्थ की हानि संभव है अतः धर्मराज युधिष्ठिर के जीवन से, सीखने योग्य बात है कि, भले ही कोई कितना ही ज्ञानी क्यों न हो किंतु, सांसारिक माया उसे भी, अपने प्रभाव से ग्रसित करती है| तब मानव धर्म ही, उसका कवच बनता है और विपरीत परिस्थितियों में भी, सत्य की विजय सुनिश्चित करता है|
अभिमन्यु कौन है?

अभिमन्यु एक साहसी योद्धा था जो, राजकुमारी सुभद्रा और धनुर्धारी अर्जुन का पुत्र था| महाभारत के विध्वंसक युद्ध में, पराक्रमी अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदते हुए, वीरगति को प्राप्त हुए हालाँकि, यह तो श्रीकृष्ण की चाल थी जिसमें, अभिमन्यु तो केवल एक माध्यम था ताकि, अर्जुन का कौरवों से, मोह भंग हो सके और अर्जुन अपने पूरे बल के साथ, कौरवों पर काल बनकर टूट पड़े| अतः पांडवों की विजय हेतु, अभिमन्यु का बलिदान आवश्यक था| चक्रव्यूह का अपूर्ण ज्ञान ही, अभिमन्यु की मृत्यु का कारण बना फिर भी, धार्मिक दृष्टिकोण से, अभिमन्यु का बलिदान, परिणाम सूचक था| वस्तुतः अभिमन्यु योद्धाओं के उस मोह का प्रतीक है, जिसके हटते ही, आक्रामकता दहक उठती है और योद्धा, अपनी वास्तविक भूमिका से, परिचित हो जाता है तभी, अधर्म को पराजित किया जा सकता है|
धृतराष्ट्र कौन है?

धृतराष्ट्र हस्तिनापुर के राजा थे जिनके सौ पुत्र और एक पुत्री थी| जिनमें से, सर्वश्रेष्ठ बाहुबली पुत्र दुर्योधन था| धृतराष्ट्र नेत्रहीन थे, जिन्हें देखते हुए, उनकी पत्नी गांधारी ने भी, आजीवन दृष्टिहीन रहने का प्रण लिया| पांडवों की पत्नी द्रोपदी के साथ हुए दुर्व्यवहार के साक्षी, धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों को, मौन समर्थन दिया है जिसे, एक पिता का, अपने पुत्र के प्रति अंधा मोह ही कहा जाएगा| वस्तुतः धृतराष्ट्र उस मनुष्य का प्रतीक है, जिसकी सत्य चेतना शून्य हो और वह अहंकार के वशीभूत होकर, धर्म का मार्ग त्याग चुका हो| धृतराष्ट्र एक श्रेष्ठ योद्धा होने के साथ साथ, वेदों के ज्ञाता भी थे किंतु, पुत्र मोह ने उनके कुल की दुर्गति कर दी| यदि उन्होंने, समय रहते ही, अधर्म को देख लिया होता तो, महाभारत अवश्य टाली जा सकती थी|
गांधारी कौन है?

महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक गान्धारी, हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र की पत्नी थीं| गान्धारी को अपने पति धृतराष्ट्र से इतना प्रेम था कि, उन्होंने कभी उनकी किसी भी बात का विरोध नहीं किया| और तो और, नेत्रहीन पति के लिए उन्होंने भी, आजीवन अपने नेत्रों को वस्त्र से ढक लिया किंतु, उनकी यही अंधभक्ति कुलीन विनाश का कारण बनी| गान्धारी उस व्यक्ति का प्रतीक है जो, अपने विवेक को दरकिनार कर, सांसारिक विषयों में समर्पित हो जाता है| सत्य की अनुपस्थिति ही, सांसारिक बंधनों में, मोह का प्रसार करती है जिससे, बुद्धिमत्ता का ह्रास होता है तथापि, धन धान्य से संतुष्ट मनुष्य भी, दुखों में घिरा रहता है अतः संबंधों से अधिक महत्व, सत्य का होना चाहिए तभी, आनंददायक जीवन जिया जा सकेगा|
द्रोणाचार्य कौन है?

गुरु द्रोणाचार्य, कौरवों और पाण्डवों के संयुक्त गुरू थे जिन्होंने, दोनों पक्षों को हस्तिनापुर के आश्रम में, शस्त्र और शास्त्रार्थ की शिक्षा दी किंतु, महाभारत के धर्मयुद्ध में, वह कौरवों के सेनापति बने और अपने सत्य को, ताक पर रखकर राजधर्म का पक्ष लिया जो, उनके साथ साथ कौरवों के भी, विनाश का कारण बना| द्रोणाचार्य, राजशाही व्यवस्थापक के प्रतीक हैं जिन्होंने, अपनी आँखों के सामने होते हुए, द्रोपदी के अपमान को भी, राजा का आदेश मानकर स्वीकार कर लिया और दुर्योधन का विरोध किए बिना, दुःशासन के दुष्कर्म में, मौन स्वीकृत हुए| द्रोणाचार्य भले ही, शास्त्र पारंगत और वेदों के ज्ञाता रहे हों किन्तु, भगवान श्री कृष्ण की उपेक्षा, उनके ज्ञान पर संदेह प्रकट करती है| मानव शरीर अपने अहंकार को बढ़ाते हुए, इतना आगे चला जाता है कि, वह सब कुछ जानते हुए भी, वापस नहीं हट सकता| द्रोणाचार्य तेजस्वी योद्धा होने के साथ, वचनबद्ध व्यक्तित्व के धनी थे अर्थात यदि एक बार उन्होंने प्रण ले लिया तो, फिर वह अपने प्राणों की भी चिंता नहीं करते| उनका यही अहंकार, उन्हें कृष्ण से दूर ले गया परिणामस्वरूप कृष्ण की माया, द्रोण का काल बनी| अतः विपरीत परिस्थितियों में भी, कृष्ण (सत्य) का साथ संकट से बाहर निकाल सकता है|
एकलव्य कौन है?

भीलों का राजा एकलव्य, एक श्रेष्ठ धनुर्धर था जिसनें, गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर, धनुर्विद्या सीखी| जैसा कि, आप जानते होंगे कि, गुरु द्रोणाचार्य केवल राजाओं के पुत्रों को ही, शिक्षा दिया करते थे इसलिए, उन्होंने एकलव्य को शिक्षा देने से मना कर दिया जिससे, उसने स्वाध्याय का मार्ग अपनाया और वन में, गुरु द्रोण की प्रतिमा के साथ, एकाग्रचित्त धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा और समय के साथ, वह धनुष बाण में पारंगत होता चला गया| एकलव्य की प्रतिभा देखकर, गुरु द्रोणाचार्य भी प्रभावित हुए किंतु, वह आंतरिक तौर पर भयभीत भी हुए कि, एकलव्य को धर्म अधर्म का कोई ज्ञान नहीं है और न ही, वह वेदांत शिक्षा में पारंगत है फिर भला, वह अपनी शक्तियों का सदुपयोग, कैसे कर सकेगा? साथ ही साथ उन्होंने अर्जुन को वचन दिया था कि, वह उसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाएंगे अतः उन्होंने षडयंत्रकारी मार्ग अपना कर, एकलव्य से उसका अंगूठा ही माँग लिया ताकि, वह निशाना लगाने में असमर्थ हो जाए| गुरु दक्षिणा परंपरा का पालन करते हुए, एकलव्य ने अपना अंगूठा काटकर, गुरु द्रोणाचार्य के चरणों में समर्पित कर दिया| एकलव्य को श्रेष्ठ विद्यार्थी का प्रतीक कहा जाएगा तथापि, गुरु की भौतिक अनुपस्थिति भी, उसकी शिक्षा में बाधा न बन सकी| वस्तुतः एकलव्य का अंगूठा माँगा जाना अनिवार्य था चूँकि, बुद्धि के साथ विवेक का होना अनिवार्य है अतः एकलव्य के हाथ में शक्ति होना, महाभारत को अवश्य प्रभावित करता|
भीष्म कौन है?

महाराजा शांतनु के पुत्र, भीष्म प्रतिज्ञा वान व्यक्तित्व के धनी थे जिन्होंने, अपने पिता का विवाह कराने के लिए, आजीवन अविवाहित रहने का प्रण किया| उनकी इसी प्रतिज्ञा के बंधन ने, उन्हें महाभारत में कौरवों का पक्षधर बनाया और न चाहते हुए भी, उन्हें अधर्म का साथ देना पड़ा| भीष्म ज्ञान की अद्भुत मूर्ति थे किंतु, पित्रमोह ने उनके सत्य चित्त को, बाधित कर दिया परिणामस्वरूप भीष्म भी, विनाश को प्राप्त हुए| अब यहाँ बात समझने योग्य है कि, कोई भी सांसारिक सम्बन्ध, सत्य से श्रेष्ठ नहीं हो सकता अतः संयोगावस्था से प्राप्त हुए विषयों को, रस्सी और सर्प के उदाहरण से, समझना चाहिए जो, दिखने में तो रस्सी की भांति प्रतीत होते हैं किंतु, उनकी वास्तविकता विष से भरे सर्प की होती है| भावनाओं में लिए गए निर्णय, सत्य विहीन होते हैं| वस्तुतः महाभारत में भीष्म पितामह, एक ऐसे बुद्धिमान योद्धा का प्रतीक हैं जो, अपने जीवन को किसी भी सांसारिक विषय से बाँध लेता है और विपरीत समय आने पर, उसका वही बंधन, उसके विवेक की उपयोगिता नष्ट कर देता है इसलिए, बोधवान मनुष्य सांसारिक संबंधों से अधिक महत्व, सत्य को देते हैं ताकि, अंत समय ग्लानि युक्त न हो|
संजय कौन है?

महाभारत के रहस्यमयी पात्र संजय, अद्भुत ज्ञान के धनी थे| उनके पास किसी भी दृश्य को, यथार्थ स्वरूप देख पाने की दिव्यदृष्टि थी जो, उन्हें उनके पिता वेदव्यास द्वारा प्राप्त हुई थी| संजय ने महाभारत युद्ध के दौरान, धृतराष्ट्र को यथास्थिति से अवगत कराने का, भरसक प्रयास किया किंतु, धृतराष्ट्र की मनोकामना, केवल अपने पुत्र दुर्योधन की, विजय देखने की थी फलस्वरूप पुत्र मोह ने, उन्हें अंध चित्त अवस्था से ग्रसित कर लिया और तब, ज्ञानवान संजय भी, उनकी आंखें नहीं खोल सके| यहाँ संजय उस व्यक्ति का प्रतीक हैं जो, प्रत्येक मनुष्य के जीवन में, उससे संबंधित सच बताने का प्रयत्न करता है किन्तु, सांसारिक मद में चूर मनुष्य, उसे अनदेखा कर बैठते हैं जो, उनके नितांत दुखों का कारण बनता है| संजय केवल वही हो सकता है जो, किसी भी घटना का पक्षपात रहित वर्णन प्रस्तुत कर सके|
शकुनि कौन है?

गान्धारी का भाई कांधार नरेश शकुनि, एक कुटिल सलाहकार था| रिश्ते में वह दुर्योधन का मामा था किंतु, उसकी नीतियों ने दुर्योधन का सर्वनाश कर दिया| शकुनि ने अपनी चपल चालों से, पांडवों का सब कुछ छीन लिया किंतु, कृष्ण के सामने शकुनि की चालें, प्रभावहीन हो गई और वह निरंतर, अधोगति को प्राप्त होता चला गया| शकुनि एक चालाक राजनीतिज्ञ था| उसने अपनी चालों से, कई बार पांडवों को अपमानित किया था| उसके कर्मों में सत्य की अनुपस्थिति होने के साथ साथ, लोभ की अधिकता थी| जिसने उसे अधर्म का, पथ प्रवर्तक बना दिया| यहाँ शकुनी, एक ऐसे व्यक्तित्व का प्रतीक है जो, किसी भी मनुष्य के जीवन में, अंधकार और अज्ञान का उत्तरदायी होता है| जिसकी सलाह से, लालच बढ़ने लगे और मन में अहंकार प्रबल हो जाए, वही आपके जीवन का शकुनी होगा|
बर्बरीक कौन है?

भीम के पौत्र और घटोत्कच का पुत्र, यशस्वी वीर पुरूष जिसका नाम, बर्बरीक था| बर्बरीक युद्ध कला में इतना निपुण था कि, वह जिस पक्ष का साथ देता, उसकी विजय सुनिश्चित थी किन्तु, उसकी नीति ही अनोखी थी, बर्बरीक ने प्रण लिया था कि, वह किसी भी युद्ध में केवल, दुर्बल पक्ष का ही समर्थन करेगा अर्थात उसके लिए धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य महत्वहीन थे| वह केवल वर्तमान परिस्थिति के अनुसार, रक्षक बनने का चुनाव करता था| बर्बरीक की इसी प्रतिज्ञा से, कृष्ण को संदेह था कि, महाभारत में यदि कौरव हारने लगे तो, बर्बरीक दुर्योधन के साथ खड़ा हो जाएगा और पूरे युद्ध का परिणाम पलट कर रख देगा तब, धर्म की विजय रथ पर अंकुश लगना निश्चित है अतः उन्होंने, अपनी सुदर्शन नीतियों से, बर्बरीक को निष्क्रिय कर दिया| साथ ही उसे वरदान दिया कि, वह अपने कटे हुए मस्तक से, महाभारत का संपूर्ण दृश्य देख सकेगा| यहाँ कृष्ण एक संदेश देना चाहते हैं कि, जो व्यक्ति केवल भावनाओं से, अपने पक्ष का चुनाव करेगा, वह निश्चित ही अधर्म का पक्षधर बनेगा| अतः ज्ञानविहीन, भावना युक्त शक्तिशाली पक्ष को, सर्वप्रथम प्रतिबंधित किया जाना चाहिए तभी, धर्म की स्थापना संभव हो सकेगी|
वेदव्यास कौन है?

वेदों के रचयिता, वेदव्यास कहे जाते हैं| वस्तुतः महाभारत की कहानी, वेद व्यास के अपने वंश की है उनकी महानता तो, इसी बात पर है कि, अपने पारिवारिक नरसंहार को देखते हुए भी, वह केवल दृष्टा बनकर, रचनाएँ करते रहे परिणामस्वरूप महाभारत, भगवद्गीता, वेदांत व उपनिषद जैसे महान ग्रंथ, मानव समाज को, उपलब्ध हो पाए| व्यास हमेशा सांसारिक वातावरण से अछूते रहे| भोग विलास की कामनाओं ने, कभी उन्हें प्रभावित नहीं किया| अतः व्यास उस श्रेष्ठ लेखक का प्रतीक हैं जो, विपरीत परिस्थितियों में भी, पक्षपात रहित विवरण प्रस्तुत कर सके| वेद व्यास को, विष्णु अवतार कहा जाता है अर्थात मानव समाज को, शिक्षित करने वाले रचनाकार, विष्णु अंश होते हैं जो, निःस्वार्थ यथा स्थिति का वर्णन करते हैं| वर्तमान में सभी, अपने स्वार्थ हेतु केंद्रित होते हैं किन्तु, कुछ ऐसे महापुरुष भी हैं जो, दुनिया में चल रहे वृत्तान्त का ब्यौरा, संरक्षित करते जा रहे हैं जिससे, आने वाली पीढ़ियों को, वास्तविक इतिहास प्राप्त हो सके और उन्हें ऐतिहासिक त्रुटियों से, सीखने के अवसर प्राप्त हों ताकि, वह अपने जीवन में वही न दोहराए जो, विनाशकारी भविष्य की संभावनाएं खड़ी करे|
हिरण्यकश्यप कौन है?

हिरण्यकरण वन का राजा हिरण्यकश्यप एक अधर्मी शासक था जिसका घोर तपस्या से आजीवन जीवित रहने का प्रबंध किया था अर्थात उसने वरदान प्राप्त किया था कि उसकी हत्या न मनुष्य कर सके न ही पशु, न दैत्य न ही देवता, न यक्ष न ही गन्धर्व इसके अतिरिक्त न ही वह अपने महल के भीतर मर सकता है और न ही अपने महल के बाहर, न उसे कोई दिन में मार सकता है न ही रात्रि में, न ही अस्त्र से उसकी मृत्यु संभव है न ही शस्त्र से, न ही पृथ्वी पर उसकी मृत्यु होगी न ही आकाश में संभव है हिरण्यकश्यप ने स्वार्थ में अंधे होकर अत्याचारों की सारी सीमाएं लाँघ दी थीं उसके चार पुत्र थे जिनके नाम प्रह्लाद , अनुहलाद , सह्ल्लाद और हल्लाद जिनमें से, प्रह्लाद सबसे बड़ा था जो, एक श्रेष्ठ विष्णुभक्त भी था किंतु, हिरण्यकश्यप अपने पुत्र, प्रहलाद से घृणा करता था चूँकि, हिरण्यकश्यप एक अहंकारी राजा था जिसने, स्वयं को भगवान घोषित कर दिया था और अपने राज्य के सभी लोगों से, केवल अपनी ही पूजा अर्चना करने को कहता था| राज्य की जनता, उसके भय से उसे ही, अपना ईश्वर मानती थी किंतु, प्रहलाद केवल विष्णु भगवान को ही, अपना आराध्य समझता था| एक दिन हिरण्यकश्यप ने, अपनी बहन होलिका के परामर्श से, प्रह्लाद को अग्नि में जलाकर मारना चाहा| जैसा कि, होलिका को भी वरदान था कि, उसे अग्नि जला नहीं सकती| अतः उसने कपटपूर्ण षड्यंत्र से, प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर, चिता की लकड़ियों में आग लगवा दी| कुछ ही पलों में आग की लपटों ने, विकराल रूप धारण कर लिया किन्तु, हिरण्यकश्यप की इच्छा के विपरीत, होलिका को अग्नि ने राख के ढेर में परिवर्तित कर दिया और भगवान विष्णु की कृपा से, प्रहलाद सुरक्षित बाहर आ गया| अपनी बहन की मृत्यु से, हिरण्यकश्यप अत्यंत क्रोधित हुआ| उसने प्रत्यक्ष तौर पर, प्रहलाद का वध करना चाहा तभी, भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार ने, प्रकट होकर उसका वध कर दिया और प्रह्लाद को, हिरण्यकरण वन का राजा बना दिया| यहाँ हिरण्यकश्यप एक शक्तिशाली अहंकारी शासक का प्रतीक है जो, अपने स्वार्थ में इतना अंधा हो चुका है कि, मृत्यु पर विजय प्राप्त करना चाहता है जो, भौतिक तत्वों के लिए असंभव है| अतः हिरण्यकश्यप जैसे विचार रखने वाले मनुष्यों के लिये, यह घटना शिक्षाप्रद है|
प्रहलाद कौन है?

हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद, एक महान विष्णु भक्त था| जिसकी भक्ति से, प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने, नरसिंह अवतार धारण किया और हिरण्यकश्यप का वध करके, उसके आतंक से सभी को मुक्ति दिलायी| प्रहलाद का जन्म भले ही एक राक्षस के यहाँ हुआ हो किन्तु, वह विष्णु भक्ति में लीन देव पुरुष था जिसे, सांसारिक सुख सुविधाओं का कोई लोभ नहीं था| उसे भगवान विष्णु के चरणों में ही, परमानंद की अनुभूति होती थी| इस बात से हिरण्यकश्यप इतना क्रोधित था कि, उसने अपने पुत्र की हत्या तक करने का प्रयत्न किया किन्तु, वह सफल न हो सका है अंततोगत्वा विष्णु अवतार नरसिंह ने, हिरण्यकश्यप सर्वनाश कर दिया| इस कथा में प्रहलाद सत्य का प्रतीक है| संयोगवश उसका जन्म राक्षस के यहाँ हुआ किंतु, उसने अपनी भक्ति और श्रद्धा से, अपनी करनी सुधार दी परिणामस्वरूप उसका जीवन, आनंदित हो उठा| परिस्थितियां कैसी भी हों, सत्य की विजय सुनिश्चित है अतः परमात्मा की भक्ति में, समर्पण अनिवार्य है| भक्ति भयरहित चित्त प्रदान करती है|
होलिका कौन है?

हिरण्यकश्यप की बहन होलिका जिसे, अग्नि में न जलने का वरदान था किन्तु, उसकी मृत्यु का कारण, अग्नि ही बनी| वस्तुतः होलिका एक राक्षसी थी| वह अपने अधर्मी भाई के कहने पर, अपने ही भतीजे प्रह्लाद को मिटाना चाहती थी किंतु, विष्णु भक्त को मारने की लालसा ने, उसे ही मिटने पर विवश कर दिया और चिता की धधकती ज्वाला में, होलिका को अपने प्राण त्यागने पड़े| यहाँ होलिका एक अज्ञानी, शक्तिशाली मनुष्य का प्रतीक है जिसने, अपनी शक्तियों का दुरुपयोग, अधार्मिक षडयंत्र के लिए किया फलस्वरूप होलिका मृत्यु को प्राप्त हुई और तभी से, होलिका दहन का आरंभ हुआ| होलिका के जीवन में छुपा संदेश है कि, भले ही कोई मनुष्य अनंत शक्तियों का स्वामी हो किंतु, उनकी पराजय उसी क्षण सुनिश्चित हो जाती है, जब वह अपने अहंकार के वशीभूत होकर, धर्म के विरुद्ध खड़ा होता है अतः उसका साथ देना विनाशकारी होगा|
नरसिंह कौन है?

भगवान विष्णु का सबसे उग्र अवतार जिसे, नरसिंह कहा जाता है| नरसिंह अर्थात नर और सिंह के मिलन से, बनने वाला शरीर| जिसका आधा भाग, मनुष्य का और आधा, शेर रूपी प्रतीत होता है| वस्तुतः विष्णु को पालन, शिक्षण और रक्षण का प्रतीक माना जाता है अतः हिरण्यकश्यप जैसे दुराचारी राजा का वध करने वाली शक्ति, भगवान विष्णु का ही प्रतिबिम्ब होगी| हिरण्यकश्यप, धन धान्य से भरपूर एक शक्तिशाली शासक था जिसने, अपने अहंकार के आवेग में, स्वयं को भगवान घोषित करना चाहा किंतु, उसे अपने ही बेटे से विरोध झेलना पड़ा| इस बात से हिरण्यकश्यप अत्यंत क्रोधित हुआ| यहाँ तक कि, उसने अपने पुत्र की हत्या करने का प्रयास भी किया अंततोगत्वा उसे, भगवान नरसिंह के हाथों अपने प्राण त्यागने पड़े| यहाँ नरसिंह वह परिस्थिति है जो, किसी भी अहंकारी दुराचारी के अत्याचारों के विरोध में, उत्पन्न होती है ताकि, सत्य का विजय रथ सुचारु ढंग से संचालित होता रहे|
दुर्गा कौन है?

देवी दुर्गा को शक्ति स्वरूपा जगदंबा कहा गया है| जिसकी उत्पत्ति शिव की शून्यता से हुई है| दुर्गा कोई मनुष्य नहीं जिसे, स्त्रीलिंग से परिभाषित किया जा सके बल्कि, संपूर्ण जगत ही दुर्गा है जिसकी पूजा करने पर, वह मुक्तिदायिनी बनती है और इसके विपरीत, सांसारिक भोग की अभिलाषा, जीवन दुख से ग्रसित कर देती है| मनुष्य के शरीर से लेकर, ब्रम्हाण्ड के बड़े से बड़ा ग्रह तक, दुर्गा ही है| संसार से प्राप्त धन, बल या पद भी दुर्गा है जिन्हें, सयुंक्त रूप में शक्ति कहा जाता है| जिनका उपयोग, परमार्थ मार्गी होना चाहिए तभी, वह मुक्ति का माध्यम बन सकते हैं| जब मनुष्य का भोग चरम पर होता है तब, प्रकृति अपना विकराल रुप अवश्य दिखाती है चाहे, वह मिट्टी का कटाव हो या तापमान का परिवर्तन, सभी घटनाओं को, देवी दुर्गा के प्रकोप से जोड़कर देखा जाता है| यदि तार्किक रूप से कहा जाए तो, ज्ञानवान मनुष्य ही, अपने शरीर को आनंददायक अवस्था में स्थापित कर सकता है, वहीं स्वार्थी मनुष्य, अपने अहंकार के मद में, अरुचिकर मार्ग चुन लेता है परिणामस्वरूप उसे सुख के साधन तो प्राप्त हो जाते हैं किंतु, वासनाग्रसित मन, मृत्यु तक चिंताओं से घिरा रहता है अतः आनंद प्राप्ति हेतु, जगत पूजनीय होना चाहिए चूँकि, सांसारिक विषय वस्तुएँ पोषण हेतु हैं, शोषण हेतु नहीं अपितु, यही वास्तविक दुर्गा भक्ति है|
बुद्ध कौन है?

इक्ष्वाकु वंश के राजा, शुद्धोधन और उनकी पत्नी, महामाया के तेजस्वी पुत्र, सिद्धार्थ जो, आगे चलकर बौद्ध धर्म के प्रारब्ध कहलाये और गौतम बुद्ध के नाम से, प्रचलित हुए| सिद्धार्थ के पिता ने, अपने पुत्र को सांसारिक सुविधाओं का चरम सुख प्रदान किया था किंतु, एक दिन सिद्धार्थ रास्ते में, एक बूढ़े व्यक्ति को देखकर चिंतित हुए| वह अपने राज्य के सैनिक से पूछ बैठे कि, इसकी हालत ऐसी क्यों है? सैनिक ने उत्तर देते हुए कहा कि, “यह तो बुढ़ापा है जो, एक निश्चित आयु के बाद, सभी के जीवन में आता है|” सैनिक की बात सुनते ही, सिद्धार्थ ने कहा, “क्या, मैं भी बूढ़ा हो जाऊँगा?” सैनिक ने सर हिलाते हुए कहा, :जी हाँ, आप भी” तभी, आगे चलकर सिद्धार्थ को, एक शवयात्रा के दर्शन हुए, उन्होंने पुनः सैनिक से जिज्ञासा की, सैनिक ने उत्तर देते हुए कहा, “यह तो मृत्यु है, जो सभी के साथ घटने वाली है|” सैनिक की इस बात से सिद्धार्थ का मन विचलित हो उठा| उन्होंने सोचा क्या, मेरा जन्म ऐसी गति प्राप्त करने के लिए हुआ है? तभी, उन्होंने संन्यास धारण करने का निर्णय लिया और अपने पुत्र, राहुल और पत्नी, यशोधरा को त्यागकर, सत्य की तलाश में वन चले गए| उनके इस निर्णय ने ही, उन्हें अमरत्व प्रदान किया और आज बुद्ध, सभी के ह्रदय में जीवित हैं| बुद्ध कोई व्यक्ति नहीं बल्कि, सांसारिक शून्यता हैं जिसे, व्यक्तिगत अहंकार निष्क्रियता के पश्चात ही, प्राप्त किया जा सकता है| बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार भी कहा जाता है अर्थात बुद्ध ने, समाज को शांति की शिक्षा दी चूँकि, शांति ही मनुष्य का मूल स्वभाव है, जिसकी प्राप्ति, सांसारिक मनुष्य के लिए, लगभग असंभव है इसलिए, बुद्ध को भगवान का स्थान दिया जाता है| वस्तुतः बुद्ध का जन्म, चेतना की उत्कृष्टता पर ही होता है अतः संसार के प्रति, उदासीन और सत्य के प्रति जिज्ञासा रखने वाले मनुष्य ही, बोध में स्थापित होते हैं जिन्हें, बुद्ध का अंश कहा जा सकता है|
अंगुलिमाल कौन है?

अंगुलिमाल एक कुख्यात डाकू था जिसने, गौतम बुद्ध की शिक्षा से प्रभावित होकर, पाप का मार्ग त्याग दिया और बौद्ध भिक्षु बनकर, बुद्ध का अनुसरण करने लगा| कथानुसार, एक बार महात्मा बुद्ध अपने ध्यान में मग्न थे तभी, उनके पास एक व्यक्ति, कटी हुई उंगलियों की माला पहनकर पहुँचा और ऊँचे स्वर में, बुद्ध को ललकारते हुए कहा, “मैं एक हत्यारा हूँ| मैंने लोगों की हत्या करके, उनकी उँगलियों की माला पहनने का संकल्प लिया है और मैं, तुम्हारी भी हत्या करना चाहता हूँ ताकि, तुम्हारी उंगली काटकर, उसे अपनी माला में गुथ सकूँ|” बुद्ध उसे देखते ही, उसकी स्थिति समझ गए| उन्होंने, उसे अपने पास बुलाकर, उसकी यथार्थता का वर्णन किया| बुद्ध के उपदेशों ने, अंगुलिमाल का ह्रदय परिवर्तन कर दिया तत्पश्चात् अंगुलिमाल, बुद्ध के चरणों में गिर गया और अपने अपराधों के लिए, क्षमा याचना करने लगा| बुद्ध ने उसे इतना प्रभावित किया कि, वह तत्क्षण बुद्ध का अनुयायी बन गया| यहाँ अंगुलिमाल एक ऐसे मनुष्य का प्रतीक है जिसने, अपने जीवन में अहंकार वश, अवांछनीय कृत्य किए हों और क्रोध की अग्नि में झुलस रहा हो किंतु, भगवान विष्णु का अवतार कहे जाने वाले, बुद्ध जैसे महान ज्ञानियों के शरण में जाते ही, उसका जीवन रूपांतरित हो सकता है| वस्तुतः सांसारिक जीवन में भटका हुआ, प्रत्येक मनुष्य जो, हिंसक कृत्यों से संलग्न हो, वही अंगुलिमाल है जिसे, आत्मिक शांति के लिए, किसी बुद्ध या कृष्ण के मार्गदर्शन की आवश्यकता है|
अष्टावक्र कौन है?

ऋषि उद्दालक के शिष्य का नाम कहोड़ था जिसे, उन्होंने संपूर्ण वेदों की शिक्षा दी थी| उसकी योग्यता को देखते हुए, उन्होंने अपनी पुत्री सुजाता का विवाह, कहोड़ से करा दिया| विवाह के पश्चात, सुजाता के गर्भ से विकलांग पुत्र का जन्म हुआ| जिसे, पिता ने ज्ञान के अहंकार में चूर होकर, श्रापित किया था कि, वह जन्म से ही आठ अंगों से, अपाहिज पैदा होगा इसलिए, उसे नाम दिया गया, अष्टावक्र| वह अद्वैत वेदान्त के ज्ञाता थे जिन्होने, राजा जनक जैसे, महान वेदांती को भी, अपने गीता ज्ञान से प्रकाशित किया| भगवद्गीता जहाँ, संसार में कर्म करते हुए, मुक्त होने का मार्ग बताती है वहीं, अष्टावक्र गीता, योगियों की पूर्ण शून्यता सुनिश्चित करती है| जब तक मनुष्य के “मैं” अर्थात “अहंकार” का संपूर्ण नाश न हो जाए, तब तक दुख की संभावनाएँ बनी रहेंगी| अतः अष्टावक्र गीता, आजीवन मुक्ति का मार्ग है जो, अनंतता प्रदान करती है| अष्टावक्र के जीवन से, सीखने योग्य है कि, ज्ञानी मनुष्य के लिए, शारीरिक दुर्बलता बाधक नहीं बनती| अतः शुद्ध चेतन मन प्राप्ति हेतु, मानसिक क्षमताओं को विकसित करना ही, मानव जीवन का उद्देश्य होना चाहिए ताकि, संसारियों को अन्धकारमुक्त किया जा सके|
राजा बलि कौन है?

असुर नरेश भक्त प्रह्लाद के पोते, राजा बलि दानवीर व्यक्तित्व के धनी थे| वस्तुतः राक्षसों का राजा होने के कारण, उनकी नीतियां अधार्मिक थी उन्होंने, अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करके, देवताओं से उनका राजपाठ छीन लिया यद्यपि, उनके राज्य में आने वाला कोई भी भिक्षुक, संतुष्ट होकर ही जाता था| उन्हें अपने दानवीर होने पर गर्व था| एक बार बालक रुपी, वामन नामक ब्राह्मण, साधारण वस्त्रों में, राजा बलि के दरबार में पहुँचे जिन्हें, विष्णु अवतार भी कहा जाता है| उन्होंने राजा के आग्रह पर, उनसे तीन पग भूमि की माँग की| ब्राह्मण बालक का शारीरिक आकार छोटा था| जिसे देखकर राजा ने, उनका उपहास उड़ाते हुए कहा कि, “आप मुझ जैसे धनाढ्य सम्राट से, केवल तीन पग भूमि माँग रहे हैं| आपको लज्जा नहीं आती?” वामन ने राजा से कहा कि, “हे राजन, मुझे अधिक दान की मनोकामना नहीं है| आप मेरी इच्छानुकूल, दान देने की कृपा करें|” राजा बलि ने अहंकार भरे स्वर में, अपनी सहमति दी| अगले ही पल, वामन ने अपना विराट रूप धारण करके, दो कदम में सारा ब्रम्हांड नाप लिया और जब, तीसरे पग की बारी आई तो, उन्होंने राजा से पूछा कि, “मैं अपना तीसरा पग कहाँ रखूँ राजन?” उसी क्षण राजा का अहम चूर चूर हो गया| उन्होने लज्जित होते हुए, अपना सर झुका दिया था और ब्राह्मण से निवेदन करते हुए कहा कि, आपने दो कदमों में ही, सारा जगत नाप लिया| अब मेरे पास आपको देने के लिए, कुछ नहीं बचा| कृपया आप, अंतिम पग मेरे मस्तक में रखिए और मुझे, अपना दास स्वीकार कीजिए और तब, बालक वामन ने राजा को, उसके पापों से मुक्ति दी| यहाँ, वामन उस स्थिति का प्रतीक हैं जो, भले ही तुच्छ प्रतीत हो किंतु, उसका संचालन परम ब्रह्म से ही होता है जिसे, विशेष अवस्था के रूप में भी समझा जा सकता है और बलि, उस शक्ति का प्रतीक है जो, अधर्म के मार्ग पर चलकर, धर्म का आडंबर करें| अतः वामन वह परिस्थिति है जो, अधर्मी सत्ता को चुनौती दे सके|
नारद कौन है?

भगवान ब्रम्हा के मानस पुत्र जिन्हें, देवर्षि नारद के नाम से जाना जाता है| नारद को साक्षात विष्णु अवतार भी कहा गया है उन्होंने, अपनी संदेश वाहक क्षमता से, रुके हुए कार्यों को गति प्रदान की| नारद का कार्य, धर्म की रक्षा हेतु, मानवीय विचारों में परिवर्तन करना है| अतः जो मनुष्य, अपनी वाक्शक्ति का उपयोग करके, समाज में सत्य की स्थापना करें, वही विष्णु अंश नारद का स्वरूप होगा| समाज में नारद की आवश्यकता हमेशा होती है चूँकि, मनुष्य का मन चंचल है जो, सांसारिक माया में उलझ जाता है| ऐसी परिस्थिति में, मनुष्य के अंदर सार्वजनिक हित की भावना का उत्पन्न करना अति आवश्यक है तभी, एक श्रेष्ठ समाज का निर्माण किया जा सकेगा| नारद मुनि ने अपने शब्द बाणों से, भगवान श्री कृष्ण की भांति, सुदर्शन चलाया और भोग में डूबे हुए देवताओं को, धर्म के प्रति जागरूक किया जिससे, देवताओं और राक्षसों के बीच, युद्ध की परिस्थिति का निर्माण होता रहे और मानव धर्म बचा रहे|
परशुराम कौन है?

ब्राह्मण ऋषि पुत्र, परशुराम एक तेजस्वी योद्धा और महाज्ञानी विष्णु अवतार थे जिन्होंने, अपनी शक्ति से कई क्रूर राजाओं को पराजित किया और भ्रष्टाचारी तंत्र से, प्रजा को मुक्त कराया| परशुराम को चिरंजीवी कहा गया है अर्थात जब तक, मानवीय अस्तित्व है तब तक, वह हमेशा रहेंगे| इसे तार्किक रूप से कहा जाए तो, कोई भी शासक ज्ञान के बाद ही, राजा बनता है जिसे, सारी शक्तियां प्रदान की जाती है ताकि, समाज का संचालन सुगमता से किया जा सके किन्तु, जब शासक ही भ्रष्ट होने लगें तो, ज्ञानी को भी शस्त्र उठाना पड़ता है ताकि, सत्य की विजय सुनिश्चित की जा सके और उन्हें ही, परशुराम का अंश कहा गया है जो, प्रत्येक काल में हमारे बीच उपलब्ध होते हैं किन्तु, उनका रौद्ररूप विपरीत परिस्थितियों में ही प्रदर्शित होता है|
अवधूत कौन है?

भगवान शिव के अवतार कहे जाने वाले जोगी, जिसने सांसारिक बंधनों से पूर्णतः मुक्ति प्राप्त कर ली हो और निर्विरोध, चित्त में स्थापित हो, वही अवधूत है| कथानुसार, अपनी पत्नी की मृत्यु के पश्चात, भगवान शिव ने संसार से विरक्त होकर, अवधूत का वेश अपना लिया जिसमें, उन्होंने नग्न अवस्था के साथ, भस्म लपेटे हुए मस्तकों की माला धारण किये एकांतवास में लीन हुए| माता शक्ति के विच्छेदन ने, शिव को वियोग से ग्रसित कर दिया जिसे, नियंत्रित करने हेतु ही, शिव ने यह रूप धारण किया ताकि, सांसारिक मनुष्यों को, वैराग्य का मार्ग दिखाया जा सके| वस्तुतः शून्य ही शिव है, अतः सत्य केंद्रित वैरागी व्यक्तित्व ही, अवधूत अंश है जो, अपने मन को, इन्द्रियों के नियंत्रण से, विरक्त कर चुका हो और निः स्वार्थ, निष्काम, निर्लिप्त, निर्लज्जता ही, उसके सिद्धांत बन चुके हों, कालान्तर जिससे, अछूता रहे जो, समय के परे हो जिसे, सांसारिक नियम बाँध न सकें, वही वास्तविक अवधूत है|
हयग्रीव कौन है?

घोड़े के सिर और मनुष्य के धड़ वाले प्राणी को, हयग्रीव कहा गया है| वस्तुतः हयग्रीव नामक एक राक्षस था जो, होलिका और हिरण्यकश्यप का भाई था| हयग्रीव को वरदान था कि, उसकी मृत्यु केवल उसी की भांति दिखने वाला प्राणी ही कर सकता है| उसने अपने वरदान का दुरुपयोग करते हुए, अत्याचारी मार्ग अपनाया और देवताओं को प्रताड़ित करने लगा| जिसका विरोध करने हेतु, सभी देवताओं ने भगवान विष्णु की शरण ली| उनकी विनती सुनते ही, स्वयं भगवान विष्णु अवतरित हुए| उन्होने हयग्रीव से, कई वर्षों तक युद्ध किया है किंतु, भगवान विष्णु उसकी शक्ति के आगे लाचार थे| अतः जब वह थक कर बैठ गये तो, भगवान ब्रह्मा की शक्ति से, उनके धनुष की प्रत्यंचा टूट गई जिससे, विष्णु की गर्दन कट गई फिर, सभी देवताओं के समर्थन से, उन्हें घोड़े का सिर लगाया गया है जिससे, वह हयग्रीव की भाँति दिखने लगे और राक्षस के वरदान का मान रखते हुए, उन्होने उसी का रूप धारण कर लिया तत्पश्चात् हयग्रीव का वध, संभव हुआ| यहाँ, यदि तार्किक रूप से समझें तो, अधर्म जब शक्तिशाली हो और नियम विरुद्ध नीति का अनुगमन करते हुए, सत्य का विरोध करने लगे तो, उसे उसी की भाषा में, प्रतिउत्तर देना आवश्यक होता है| अतः विपरीत परिस्थितियों में, राक्षसों को मारने हेतु, स्वयं राक्षस बनना पड़ता है| जिसका साहस, एक आत्मज्ञानी के अंदर ही होता है जिसे, भगवान विष्णु का हयग्रीव अंश कहा जाता है|
मोहिनी कौन है?

भगवान विष्णु का स्त्री रुपी अवतार, मोहिनी नाम से जाना जाता है| मोहिनी का उल्लेख, दो कथाओं में मिलता है| प्रथम कथानुसार, समुद्र मंथन के दौरान, मोहिनी ने अमृत वितरित करते हुए, अपने आकर्षण से राक्षसों को मोहित कर लिया है परिणामस्वरूप उन्हें, अमृतपान से वंचित रहना पड़ा और देवता अमरत्व को प्राप्त हुए और दूसरी कथा में, भगवान शिव द्वारा वरदान प्राप्त, भस्मासुर नामक राक्षस, जब उन्हें ही भस्म करने हेतु बढ़ा तब, उन्होंने भगवान विष्णु की शरण ली| शिव की पुकार सुन, विष्णु ने पुनः मोहनी का रूप धारण कर, भस्मासुर को नृत्य करते हुए, मोहित कर लिया जिससे, वह अपना विनाश कर बैठा| वस्तुतः भस्मासुर को वरदान था कि, वह जिसके सिर में हाथ रखेगा, उसकी मृत्यु निश्चित है| अतः मोहिनी के साथ, वह बेसुध हो गया और अपने ही सिर में हाथ रख बैठा जिससे, तत्क्षण वह विनाश को प्राप्त हुआ| यहाँ मोहिनी उस स्थिति का प्रतीक हैं, जिनके सम्मोहन से, अधर्म का नाश हो या अत्याचारी मनुष्य, दुर्बलताओं से ग्रसित होता जाए ताकि, धर्म को शक्ति प्रदान की जा सके और सामाजिक सौहार्द्र बना रहे|
कामदेव कौन है?

भगवान विष्णु और लक्ष्मी के पुत्र कामदेव, वासना के देवता है| वासना अर्थात सांसारिक विषय वस्तुओं के प्रति आकर्षण, जिनका प्रभाव, प्रत्येक मनुष्य के मन मस्तिष्क पर होता है किंतु, एक आत्मज्ञानी को कामदेव प्रभावित नहीं कर सकता| जिसकी प्रमाणिकता हेतु, शिव और कामदेव की प्राचीन कथा प्रचलित है वस्तुतः शिव को तपस्वी कहा गया है जो, सदैव अपनी साधना में संलग्न रहते हैं| एक बार वह एकांतवास तप साधना में लीन थे तभी, पार्वती के आग्रह पर कामदेव, शिव की साधना भंग करने पहुँचे और जैसे ही उन्होंने, अपनी सम्मोहन का माया जाल बिछाया तो, शिव के नेत्र खुल गए| अपनी तपस्या भंग होते ही शिव, क्रोधित हो उठे तत्क्षण उन्होंने, अपनी तीसरी आँख के ओज से, कामदेव को भस्म कर दिया| यहाँ बात तार्किक है चूँकि, कामदेव वासना के प्रतीक हैं, जिनकी पत्नी रति मानी गई है जिसका अर्थ सौंदर्य या आकर्षक होता है| अतः वासना का संचालन, आकर्षण से ही किया जा सकता है| इसके विपरीत, एक तपस्वी को काम वासना ग्रसित नहीं कर सकती बल्कि, चेतना में सत्य का उद्दीपन ही, कामदेव की निष्क्रियता का सूचक है| सांसारिक मनुष्य, भगवान विष्णु के गुणाधीन, विकसित होते हुए, विषय भोगों में आकर्षित होते हैं जिसे, उनके पुत्र के रूप में दर्शाया जाता है| अतः सृष्टि संचालन हेतु, काम वासना अनिवार्य है किंतु, व्यक्ति विशेष के लिए, नर्क से अधिक कुछ नहीं| एक ज्ञानी काम को सत्य की कसौटी पर ही जाँचता है तभी, उसकी उपयोगिता तय की जा सकती है|
संपूर्ण विश्व, भगवान के विषय में व्याख्यान प्रस्तुत कर चुका है| कुछ लोगों का मानना है कि, भगवान निराकार है, वहीं कुछ उसके साकार गुणों की व्याख्या करते हैं| यहाँ दोनों बातें सत्य हैं| जैसे- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के अवतारों को, मनुष्य रूप में ही उत्पन्न होना पड़ता है किन्तु, जन्म के साथ मिले हुए शरीर को, भगवान की संज्ञा नहीं दी जाती| अतः निर्गुणी मनुष्य ही, अवतार कहलाने योग्य होते हैं| उदाहरण हेतु, सिद्धार्थ जब तक, राजा की भूमिका में थे तब तक, उन्हें भगवान नहीं कहा जा सकता किन्तु, जैसे ही, वह बोध में स्थापित हुए, वह विष्णु अवतार गौतमबुद्ध कहलाने लगे| उसी प्रकार राम के १४ वर्षीय संघर्ष ने उन्हें, उन्मुखी चेतना की ओर अग्रसर किया और भगवान श्रीकृष्ण भी, गीता के ज्ञान से पहचाने गए न कि, रूप और रंग से| वास्तव में यदि देखा जाए तो, जब तक मानवीय अस्तित्व है तब तक, भगवान की आवश्यकता बनी रहेगी किंतु, पेड़ पौधों और पशु पक्षियों के लिए, यह निश्चित ही निरर्थक है| अतः जो मनुष्य पशुओं के तल पर जीवन जी रहा है, उसके लिए भगवान की उपयोगिता नहीं रह जाती चूँकि, सर्वप्रथम शरीर को भोजन की आवश्यकता होती है, जिसकी पूर्ति हेतु, संसार महत्वपूर्ण हो जाता है जो, एक भ्रामक स्थिति को जन्म देता है| जानवरों के लिए उनका पेट भरना अंतिम लक्ष्य हैं किंतु, मनुष्य के लिए मन की तृप्ति ही सर्वोत्तम है जिसे, यथावत रखने हेतु, सांसारिक नियमों को समझना अनिवार्य है जहाँ, भौतिक तत्वों के लिए, विज्ञान आवश्यक है किन्तु, अदृश्य विषयों अर्थात जिनका संबंध, मानवीय चेतना से हो उन्हें, समझने हेतु आध्यात्मिक ज्ञान का होना आवश्यक होता है अन्यथा रावण या कर्ण जैसे, महाज्ञानी योद्धा भी, दुर्गति को प्राप्त होते हैं और इसके विपरीत, आत्मज्ञानियों की संगत, अर्जुन और अंगुलिमाल जैसे, हतोत्साहित मनुष्यों को भी, सर्वशक्तिमान बना सकती है| वस्तुतः अवतारों और राक्षसों के जीवन चरित्र से, मानवीय गुणों को समझाने का प्रयत्न किया गया है| उसी श्रेणी में भविष्य की कुछ संभावनाओं को भी स्थान दिया गया है जिसे, कल्कि अवतार या भविष्य में अवतरित होने वाले, दिव्य आत्माओं के शास्त्रीय विवरण से समझा जा सकता है| सांसारिक कार्य के पीछे कारण अवश्य होता है जिसे, परत दर परत घटते हुए क्रम से, पता लगाया जा सकता है किंतु, यदि कुछ अकारण हुआ तो, उसे ही भगवान द्वारा किया हुआ, कार्य कहा जाएगा|